प्राचीन इतिहास को जानने के स्त्रोत
प्राचीन इतिहास को जानने के स्त्रोत
भारत के इतिहास के सम्बन्ध के अनेकों स्त्रोत
उपलब्ध हैं, कुछ स्त्रोत काफी विश्वसनीय व वैज्ञानिक हैं, अन्य मान्यताओं पर
आधारित हैं।प्राचीन भारत के इतिहास के सम्बन्ध में जानकारी के मुख्य स्त्रोतों को
3 भागों में बांटा जा सकता है, यह 3 स्त्रोत निम्नलिखित हैं :
- पुरातात्विक स्त्रोत
- साहित्यिक स्त्रोत
- विदेशी स्त्रोत
पुरातात्विक स्त्रोत का सम्बन्ध प्राचीन
अभिलेखों, सिक्कों, स्मारकों, भवनों, मूर्तियों तथा चित्रकला से है, यह साधन काफी
विश्वसनीय हैं। इन स्त्रोतों की सहायता से प्राचीन काल की विभिन्न मानवीय
गतिविधियों की काफी सटीक जानकारी मिलती है। इन स्त्रोतों से किसी समय विशेष
में मौजूद लोगों के रहन-सहन, कला, जीवन शैली व अर्थव्यवस्था इत्यादि का ज्ञान होता
है। इनमे से अधिकतर स्त्रोतों का वैज्ञानिक सत्यापन किया जा सकता है। इस प्रकार के
प्राचीन स्त्रोतों का अध्ययन करने वाले अन्वेषकों को पुरातत्वविद कहा जाता
है।
अभिलेख (Inscriptions)
भारतीय इतिहास के सम्बन्ध में अभिलेखों का स्थान
अति महत्वपूर्ण है, भारतीय इतिहास के बारे में प्राचीन काल के कई शासकों के
अभिलेखों से काफी महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हुई है। यह अभिलेख पत्थर, स्तम्भ,
धातु की पट्टी तथा मिट्टी की वस्तुओं पर उकेरे हुए प्राप्त हुए हैं। इन प्राचीन
अभिलेखों के अध्ययन को पुरालेखशास्त्र कहा जाता है, जबकि इन अभिलेखों की लिपि के
अध्ययन को पुरालिपिशास्त्र कहा जाता है। जबकि अभिलेखों के अधययन को Epigraphy कहा
जाता है। अभिलेखों का उपयोग शासकों द्वारा आमतौर पर अपने आदेशों का प्रसार करने के
लिए करते थे।
यह अभिलेख आमतौर पर ठोस सतह वाले स्थानों अथवा
वस्तुओं पर मिलते हैं, लम्बे समय तक अमिट्य बनाने के लिए इन्हें ठोस सतहों पर लिखा
जाता है। इस प्रकार के अभिलेख मंदिर की दीवारों, स्तंभों, स्तूपों, मुहरों तथा
ताम्रपत्रों इत्यादि पर प्राप्त होते हैं। यह अभिलेख अलग-अलग भाषाओँ में
लिखे गए हैं, इनमे से प्रमुख भाषाएँ संस्कृत, पाली और संस्कृत हैं, दक्षिण भारत की
भी कई भाषाओँ में काफी अभिलेख प्राप्त हुए हैं।
भारत के इतिहास के सम्बन्ध में सबसे प्राचीन
अभिलेख सिन्धु घाटी सभ्यता से प्राप्त हुए हैं, यह अभिलेख औसतन 2500 ईसा पूर्व के
समयकाल के हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता की लिपि अभी तक डिकोड न किया जाने के कारण अभी
तक इन अभिलेखों का सार अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। सिन्धु घाटी सभ्यता की लिपि
में प्रतीक चिन्हों का उपयोग किया गया है, और अभी तक इस लिपि का डिकोड नहीं किया
जा सका है।
पश्चिम एशिया अथवा एशिया माइनर के बोंगज़कोई नामक
स्थान से भी काफी प्राचीन अभिलेख प्राप्त हुए हैं, हालांकि यह अभिलेख सिन्धु घाटी
सभ्यता के जितने पुराने नहीं है।बोंगज़कोई से प्राप्त अभिलेख लगभग 1400 ईसा पूर्व
के समयकाल के हैं। इन अभिलेखों की विशेष बात यह है कि इन अभिलेखों में वैदिक
देवताओं इंद्र, मित्र, वरुण तथा नासत्य का उल्लेख मिलता है। ईरान से भी प्राचीन
अभिलेख नक्श-ए-रुस्तम प्राप्त हुए हैं, इन अभिलेखों में प्राचीन काल में भारत और
पश्चिम एशिया के सम्बन्ध में वर्णन मिलता है। भारत के प्राचीन इतिहास के अधययन में
यह अभिलेख अति महत्वपूर्ण हैं, इनसे प्राचीन भारत की अर्थव्यवस्था, व्यापार
इत्यादि के सम्बन्ध में पता चलता है।
ईरान में कस्साइट अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जबकि
सीरिया के मितन्नी अभिलेख में आर्य नामों का वर्णन किया गया है। मौर्य सम्राट अशोक
ने अपने शासनकाल में काफी अभिलेख स्थापित किये। ब्रिटिश पुरातत्वविद जेम्स
प्रिन्सेप ने सबसे पहले 1837 में अशोक के अभिलेखों को डिकोड किया। यह अभिलेख सम्राट
अशोक द्वारा ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण करवाए गए थे। अभिलेख उत्कीर्ण करवाने का
मुख्य उद्देश्य शासकों द्वारा अपने आदेश को जन-सामान्य तक पहुँचाने के लिए किया
जाता था।
सम्राट अशोक के अतिरिक्त अन्य शासकों ने भी
अभिलेख उत्कीर्ण करवाए, यह अभिलेख सम्राट द्वारा किसी क्षेत्र पर विजय अथवा अन्य
महत्वपूर्ण अवसर पर उत्कीर्ण करवाए जाते थे। प्राचीन भारत के सम्बन्ध कुछ
महत्वपूर्ण अभिलेख इस प्रकार हैं – ओडिशा के खारवेल में हाथीगुम्फा अभिलेख,
रूद्रदमन द्वरा उत्कीर्ण किया गया जूनागढ़ अभिलेख, सातवाहन शासक गौतमीपुत्र शातकर्णी
का नासिक में गुफा में उत्कीर्ण किया गया अभिलेख, समुद्रगुप्त का प्रयागस्तम्भ
अभिलेख, स्कंदगुप्त का जूनागढ़ अभिलेख, यशोवर्मन का मंदसौर अभिलेख, पुलकेशिन
द्वितीय का ऐहोल अभिलेख, प्रतिहार सम्राट भोज का ग्वालियर अभिलेख तथा विजयसेन का
देवपाड़ा अभिलेख।
अधिकतर प्राचीन अभिलेखों में प्राकृत भाषा का
उपयोग किया गया है, अभिलेख सामान्यतः उस समय की प्रचलित भाषा में खुदवाए जाते थे।
कई अभिलेखों में संस्कृत भाषा में भी सन्देश उत्कीर्ण किये गए हैं। संस्कृत का
उपयोग अभिलेखों में ईसा की दूसरी शताब्दी में दृश्यमान होता है, संस्कृत अभिलेख का
प्रथम प्रमाण जूनागढ़ अभिलेख से मिलता है, यह अभिलेख संस्कृत भाषा में लिखा गया था।
जूनागढ़ अभिलेख 150 ईसवी में शक सम्राट रूद्रदमन द्वारा उत्कीर्ण करवाया गया था।
रूद्रदमन का शासन काल 135 ईसवी से 150 ईसवी के बीच था।
पुरातत्विक साक्षयों के अंतर्गत सर्वाधिक महत्वपूर्ण साक्षय
अभिलेख हैं प्राचीन भारत के अधिकतर अभिलेख पत्थरों या धातु की पट्टिकाओं पर खुदे
मिले हैं, अतः उनमे साहित्यिक साक्षय की भाँति परिवर्तन करना असंभव था।
प्रशस्तियों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण अभिलेख समुंद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति
अभिलेख हैं जिसमे समुंद्रगुप्त की विजयों और नीतियों का पूर्ण विवेचन मिलता हैं
इसी तरह के अभिलेखों के अन्य उदहारण कलिंगराज खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख गौतमी
बलश्री का नासिक अभिलेख, रुद्रदामन का गिरनार शिलालेख, बंगाल के शासन विजयसेन का
देवपाडा अभिलेख,स्कंदगुप्त का भितरी स्तंभ लेख, जूनागढ़, शिलालेख और चालुक्य नरेश
पुलकेशिन द्रितीय का ऐहोले अभिलेख हैं।
अभिलेख |
शासन |
विषय |
हाथी गुम्फा अभिलेख |
खारवेल |
उसके शासनकाल की
घटनाओ का क्रमबद्ध विवरण |
जूनागढ़ (गिरनार )
अभिलेख |
रुद्रदामन |
इसके विजयो एवं
व्यक्तित्व का विवरण |
नासिक अभिलेख |
गौतमी बलश्री |
सातवाहन कालीन घटनाओ
का विवरण |
प्रयाग स्तम्भलेख |
समुंद्रगुप्त |
उसके विजयों एवं
नीतियों का वर्णन |
ग्वालियर अभिलेख |
भोज प्रतिहार |
गुर्जर प्रतिहार
शासकों के विषय में जानकारी |
मन्दसौर अभिलेख |
मालवा नरेश यशोवर्मन |
सैनिक उपलब्धियों का
वर्णन |
ऐहोले अभिलेख |
पुलकेशिन द्रितीय |
हर्ष एवं पुलकेशिन -
II के युद्ध का विवरण |
इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार
है:
(A) बृहद् शिलालेख:
चतुर्दश बृहद् शिलालेख:
ये अशोक की चौदह
विभिन्न राजाज्ञायें (शासनादेश) है जो भिन्न-भिन्न स्थानों से प्राप्त किये गये
हैं ।
इनका विवरण इस प्रकार है:
(i) शाहवाजगढ़ी: आधुनिक पाकिस्तान के पेशावर जिले की युसुफजई तहसील में स्थित है । 1836 ई. में जरनल कोर्ट ने इसका पता लगाया था । इसमें बारहवें के अतिरिक्त अन्य सभी लेख हैं । इस समूह के बारहवें लेख का पता 1889 ई. में सर हेरल्ड डीन ने लगाया था जो मुख्य अभिलेख से कुछ दूरी पर एक पृथक् शिलाखण्ड पर खुदा हुआ है । शाहबाजगढ़ी संभवतः अशोक के साम्राज्य में विद्यमान यवन प्रान्त की राजधानी थी ।
(ii) मनसेहरा: पाकिस्तान के हजारा जिले में स्थित है । यहां से प्राप्त तीन शिलाओं में पहली पर प्रथम आठ शिलालेख, दूसरी पर नवें से बारहवां तक तथा तीसरी पर, तेरहवां और चौदहवां लेख उत्कीर्ण हैं । पहली दो शिलाये जनरल कनिंघम द्वारा खोजी गयीं जबकि तीसरी का पता पंजाब पुरातत्व विभाग के एक भारतीय अधिकारी ने लगाया था ।
अन्य लेखों के
विपरीत उपर्युक्त दोनों लेख खरोष्ठी लिपि में लिखे गये हैं जो ईरानी अरामेइक से
उत्पन्न हुई थी । इन लेखों के अक्षर बड़े तथा खुदाई में अधिक सुस्पष्ट हैं ।
इन स्थानों में
बारहवें लेख का अंकन संभवतः विभिन्न सम्प्रदायों के बीच सामंजस्य बनाये रखने के
उद्देश्य से ही किया गया होगा जो अशोक के शासनकाल का एक मान्य सिद्धान्त था ।
(iii) कालसी:- उत्तर प्रदेश के देहरादून जिले में स्थित है । 1860 में फोरेस्ट ने इसे खोज निकाला था । यह स्थान यमुना तथा टोंस नदियों के संगम पर स्थित है ।
(iv) गिरनार:- गुजरात प्रान्त के काठियावाड़ में जूनागढ़ के समीप गिरनार की पहाड़ी है । यहीं से रुद्रदामन तथा समुद्रगुप्त के लेख भी मिले हैं । 1822 ई. में कर्नल टाड ने इन लेखों का पता लगाया था । अशोक का शिलालेख दो भागों में है जिनके बीच में ऊपर से नीचे तक एक रेखा खींची हुई है ।
पहले पाँच लेख बायी
ओर तथा सात दायीं ओर उत्कीर्ण किये गये हैं । तीसरा लेख नीचे है जिसके दायी ओर
चौदहवां लेख है । गिरनार लेख अपेक्षाकृत सबसे सुरक्षित अवस्था में है ।
(v) धौली तथा जौगढ़:- ये दोनों ही स्थान वर्तमान उड़ीसा प्रान्त के क्रमशः पुरी तथा गंजाम जिलों में स्थित हैं । धौली की तीन छोटी पहाड़ियों की एक श्रृंखला पर लेख खुदे हैं जिनका पता 1837 में किटो ने लगाया था ।
जौगढ़ के लेख भी तीन
शिलाखण्डों पर खुदे हुए है जिनका पता 1850 में वाल्टर इलियट को चला था । दोनों
प्रज्ञापनों में ग्यारहवें से तेरहवें तक लेख नहीं मिलते तथा उनके स्थान पर दो नये
लेख खुदे हुए हैं जिनमें अन्तों (सीमान्तवासियों तथा जनपदवासियों) को दिये गये
आदेश है ।
यही कारण है कि
इन्हें दो पृथक कलिंग प्रज्ञापन कहा जाता है । इनमें अन्य बातों के अलावा कलिंग
राज्य के प्रति अशोक की शासन नीति के विषय में बताया गया है । वह कलिंग के ‘नगर
व्यवहारिकों’ को न्याय के मामले में उदार तथा निष्पक्ष होने का आदेश देता है ।
(vi) एर्रगुडि:- आन्ध्र के कर्नूल जिले में स्थित है । यहां पत्थरों के छ: टीलों पर अशोक के शिलालेख एवं लघु शिलालेख उत्कीर्ण है । इनका पता 1929 ई. में भूतत्वविद् अनुघोष ने लगाया धा । एरेगुडि लेख में लिपि की दिशा दायें से बायें मिलती है जबकि अन्य सभी में यह बायें से दायें हैं ।
(vii) सोपारा:- महाराष्ट्र प्रान्त के थाना जिले में स्थित एक खण्डित शिला पर आठवें शिलालेख के कुछ भाग उत्कीर्ण है । अनुमान किया जाता है कि पहले यहां सभी चौदह लेख विद्यमान रहे होंगे ।
पहले इन लेखों की
मात्र तीन प्रतियां ही प्राप्त हुई जिन्हें उत्तरी प्रतियां कहा जा सकता है ।
किन्तु वाद में दक्षिण के कई स्थानों से भी ये प्राप्त हो गयीं । कर्नाटक प्रान्त
के ब्रह्मगिरि, सिद्धपुर तथा जटिंग रामेश्वर से जो लेख प्राप्त हुए हैं, उनमें एक
संक्षिप्त पूरक प्रज्ञापन है जिसमें धम्म का सारांश दिया गया है ।
कुछ विद्वान इसे
द्वितीय लघुशिला लेख कहते हैं । इस दृष्टि से अशोक के लघु शिलालेखों की संख्या दो
हुई । उनका विभाजन उत्तरी और दक्षिणी प्रतियों में भी किया जा सकता है । ये
शिलालेख चौदह शिलालेखों के मुख्य वर्ग में सम्मिलित नहीं है और इस कारण इन्हें
‘लघु शिलालेख’ कहा गया है ।
ये निम्नलिखित स्थानों से
प्राप्त हुए हैं:
(a) रूपनाथ (मध्य
प्रदेश के जबलपुर जिले में स्थित) ।
(b) गुजर्रा (मध्य
प्रदेश के दतिया जिले में स्थित) ।
(c) सहसाराम (बिहार)
।
(d) भब्रू (वैराट)
(राजस्थान के जयपुर जिले में स्थित) ।
(e) मास्की
(कर्नाटक के रायचूर जिले में स्थित) ।
(f) ब्रह्मगिरि
(कर्नाटक के चित्तलदुर्ग जिले में स्थित) ।
(g) सिद्धपुर
(ब्रह्मगिरि के एक मील पश्चिम में स्थित) ।
(h) जटिंगरामेश्वर
(ब्रह्मगिरि के तीन मील उत्तर-पश्चिम में स्थित) ।
(i) एर्रगुडि
(आन्ध्र के कर्नूल जिले में स्थित) ।
(j) गोविमठ (मैसूर
के कोपबल नामक स्थान के समीप स्थित) ।
(k) पालकिगुण्डु
(गोविमठ से चार मील की दूरी पर स्थित) ।
(l) राजुल मंडगिरि
(आन्ध्र के कर्नूल जिले में स्थित) ।
(m) अहरौरा (उत्तर
प्रदेश के मिर्जापुर जिले में स्थित) ।
सारी मारो (शहडोल,
म. प्र.) पनगुडरिया (सिहोर, म. प्र.) तथा नेत्तुर और उडेगोलम् (बेलाड़ी, कर्नाटक)
नामक स्थानों से लघु शिलालेख की दो अन्य प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं । एक अन्य लेख
उडेगोलम् (बेलाड़ी, कर्नाटक) से मिला है । के. डी. बाजपेयी को पनगुडरिया (सिहोर, म.
प्र.) से अशोक का एक लघु शिलालेख मिला है ।
अभी हाल में
कर्नाटक के गुलबर्गा जिले में स्थित सन्नाती नामक स्थान से अशोक-कालीन शिलालेख
प्राप्त किया गया है । भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के कर्मचारियों ने जनवरी 89
में इसे खोज निकाला । मास्की, गुजर्रा, नेत्तुर तथा उडेगोलम् के लेखों में अशोक का
व्यक्तिगत नाम भी मिलता है ।
(2) स्तम्भलेख (Pillar Edicts):-
(A) सप्त स्तम्भ-लेख:
इन राजाज्ञाओं अथवा
प्रज्ञापनों की संख्या सात है जो छ: भिन्न-भिन्न स्थानों में पाषाण-स्तम्भों पर
उत्कीर्ण पाये गये हैं ।
ये इस प्रकार हैं:
(I) दिल्ली टोपरा-
यह सर्वाधिक प्रसिद्ध स्तम्भ लेख है । मध्यकालीन इतिहासकार शम्स-ए-सिराज के अनुसार
मूलतः यह उत्तर प्रदेश के सहारनपुर (खिज्राबाद) जिले में टोपरा नामक स्थान पर गड़ा
हुआ था । कालान्तर में फिरोज शाह तुगलक (1351-88 ई.) द्वारा दिल्ली लाया गया था ।
उसने इसे फिरोजाबाद
में कोटला के ऊपर स्थापित करवाया था । इसे फिरोजशाह की लाट, भीमसेन की लाट, दिल्ली
शिवालिक लाट, सुनहरी लाट आदि नाम से भी जाना जाता है । इस पर अशोक के सातों लेख
उत्कीर्ण है जबकि अन्य पर केवल छ: ही मिलते हैं । सर्वप्रथम जेम्स प्रिंसेप ने
इसका वाचन कर अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित किया था ।
(II) दिल्ली मेरठ-
यह भी पहले मेरठ में था तथा बाद में फिरोज तुगलक द्वारा दिल्ली में लाया गया ।
(III) लौरिया
अरराज- (विहार के चम्पारन जिले में स्थित) ।
(IV) लौरिया नन्दनगढ़-
(यह भी चम्पारन जिले में ही है) ।
(V) रमपुरवा-
(चम्पारन, बिहार) ।
(V) प्रयाग- यह
पहले कौशाम्बी में था तथा बाद में अकबर द्वारा लाकर इलाहाबाद के किले में रखवाया
गया ।
(B) लघु स्तम्भ-लेख:
अशोक की राजकीय
घोषणायें जिन स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं उन्हें साधारण तौर से ‘लघु स्तम्भ-लेख’ कहा
जाता है ।
ये निम्नलिखित स्थानों से मिलते
हैं:
(I) साँची (रायसेन
जिला, मध्यप्रदेश) ।
(II) सारनाथ
(वाराणसी, उत्तर प्रदेश) ।
(III) कौशाम्बी
(इलाहाबाद के समीप) ।
(IV) रुम्मिनदेई
(नेपाल की तराई में स्थित) ।
(V) निग्लीवा
(निगाली सागर)- यह भी नेपाल की तराई में स्थित हैं ।
साँची-सारनाथ के
लघु स्तम्भ-लेख में अशोक अपने महामात्रों को संघ-भेद रोकने का आदेश देता है ।
कौशाम्बी तथा प्रयाग के स्तम्भों में अशोक की रानी करुवाकी द्वारा दान दिये जाने
का उल्लेख है । इसे ‘रानी का अभिलेख’ भी कहा गया है ।
लघु स्तम्भ लेखों
में रुम्मिनदेई प्रज्ञापन कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है । इस लेख की खोज फ्यूरर
ने की तथा जार्ज ब्यूलर ने इसे अनुवाद सहित इपिग्राफिया इण्डिका के पाँचवें खण्ड
में प्रकाशित किया ।
इसके अनुसार अपने
अभिषेक के बीस वर्ष पश्चात् देवताओं का प्रिय राजा प्रियदर्शी स्वयं यहां आया तथा
उसने पूजा की । क्योंकि यहां शाक्यमुनि बुद्ध का जन्म हुआ था, अत: उसने वहां बहुत
बड़ी पत्थर की दीवार बनवाई तथा एक स्तम्भ स्थापित किया ।
क्योंकि यहां बुद्ध
का जम हुआ था, अत: लुम्बिनी गांव का धार्मिक कर (बलि) माफ कर दिया गया तथा कर
मात्र आठवाँ भाग किया गया । प्रस्तुत लेख बुद्ध का जन्म स्थान का अभिलेखीय प्रमाण
है । यह भी सूचित होता है कि अशोक ने अपनी यात्रा के उपलक्ष्य में यहां का धार्मिक
कर माफ किया तथा राजस्व का भाग, जो मौर्य शासन में चतुर्थांश था, घटाकर अष्तांश कर
देने की घोषणा की ।
लेख की तीसरी
पंक्ति में उल्लिखित ‘सिला-विगडभी-चा’ के अर्थ पर विद्वानों में मतभेद है ।
सामान्यतः इसका अर्थ पत्थर की बड़ी दीवार बनवाना तथा शिला-स्तम्भ (बाढ़ या रेलिंग)
खड़ा करना किया जाता है ।
डॉ. ए. एल.
श्रीवास्तव ‘भीचा’ का भित्या (दीवार सहित) अर्थ करते हुए इसी पंक्ति में उल्लिखित
‘उसपापिते’ को बृषभार्पित: (स्तम्भ को वृष से सुशोभित करना) बताते है । अपने अर्थ
की पुष्टि में वे संस्कृत विद्वान प्रो. श्यामनारायण का संदर्भ देते हुए बताते हैं
कि यह स्तम्भ रमपुरवा स्तम्भ के समान वृषभशीर्ष युक्त था । निग्लीवा के लेख में
कनकमुनि के स्तूप के संवर्द्धन की चर्चा हुई है ।
लुम्बिनि लेख में
बुद्ध को ‘शाक्यमुनि’ कहा गया है । पालि साहित्य तथा भरहुत लेखों में शाक्यमुनि के
अतिरिक्त पांच पूर्व बुद्धों का उल्लेख मिलता है- विपसि (विपश्यिन), वेसभुणा
(विश्व भू), ककुसध, (क्रकच्छन्द) तथता कोनागमन (कनकमुनि) । अशोक के पहले से ही
इनके सम्मान में स्तूप निर्माण की परम्परा थी ।
(3) गुहा-लेख
(Cave-Inscriptions):-
दक्षिणी विहार के
गया जिले में स्थित ‘बराबर’ नामक पहाड़ी की तीन गुफाओं की दीवारों पर अशोक के लेख
उत्कीर्ण मिले हैं । इनमें अशोक द्वारा आजीवक सम्प्रदाय के साधुओं के निवास के
लिये गुहा-दान में दिये जाने का विवरण सुरक्षित है ।
ये सभी अभिलेख
प्राकृत भाषा में तथा ब्राह्मी लिपि में लिखे गये हैं । केवल दो अभिलेखों-
शाहबाजगढ़ी तथा मानसेहरा की लिपि ब्राह्मी न होकर खरोष्ठी है । यह दाई से बाई ओर
लिखी जाती थी ।
उपर्युक्त लेखों के
अतिरिक्त तक्षशिला से अरामेईक लिपि में लिखा गया एक भग्न अभिलेख, कन्दहार के पास
‘शरे-कुना’ नामक स्थान में यूनानी तथा अरामेईक लिपियों में लिखा गया द्विभाषीय
अभिलेख, काबुल नदी के बायें किनारे पर जलालाबाद के ऊपर स्थित “लघमान” नामक स्थान
से अरामेईक लिपि में लिखा गया अशोक का अभिलेख प्राप्त हुआ है ।
प्रमुख अभिलेख
जूनागढ़ (गिरनार)
अभिलेख– यह शक शासक रुद्रदमन प्रथम का अभिलेख है. यह संस्कृत भाषा का सबसे
लंबा एवं प्रथम अभिलेख है.
एन अभिलेख– इसे गुप्त शासक
भानुगुप्त द्वारा जारी किया गया. इसी अभिलेख में सर्वप्रथम सती–प्रथा की चर्चा
मिलती है.
एहोल अभिलेख– यह बादामी के चालुक्य
शासक पुलकेशिन द्वितीय का है, जिसे उसके मंत्री रविकीर्ति द्वारा तैयार किया गया
था.
हाथी गुम्फा अभिलेख– इसे कलिंग शासक खारवेल द्वारा जारी किया गया
था. इसी अभिलेख में सर्वप्रथम ईस्वीवार घटनाओं का विवरण मिलता है.
इलाहाबाद अभिलेख
(प्रयाग प्रशस्ति)– मूल रूप से यह अभिलेख सम्राट् अशोक का है. बाद में इस पर हरिषेण
द्वारा समुद्रगुप्त की उपलब्धियों को खुदवाया गया. आगे चलकर मुगल शासक जहाँगीर ने
भी इस पर अपना संदेश खुदवाया.
मास्की एवं गुर्जरा
अभिलेख– ये दोनों ही अभिलेख सम्राट् अशोक के हैं, जिनमें क्रमशः अशोक
प्रियदर्शी तथा अशोक नाम का उल्लेख है.
भाबू एवं रुमिनदेयी
अभिलेख– ये दोनों ही अभिलेख अशोक के हैं, जिनसे अशोक के बौद्ध धर्म के
प्रति आस्था का पता चलता है.
रूपनाथ अभिलेख– इस अभिलेख से अशोक के
शैव-धर्म के प्रति आस्था का पता चलता है. पर्सीपोलिस व नक्श-ए-रुस्तम- इस अभिलेख
में भारत तथा ईरान के संबंधों का वर्णन है.
बोगजकोई (एशिया माइनर)–
1400 ई०पू० के इस
अभिलेख में इन्द्र, वरुण, मित्र तथा नासत्य नामक चार देवताओं का उल्लेख है.
अशोक
के अभिलेखों का विभाजन निम्नलिखित वर्गों में किया जा सकता है:
(1) शिलालेख,
(2) स्तम्भलेख और
(3) गुहालेख ।
सिक्के (Coins)
प्राचीन काल में लेन-देन के लिए उपयोग की जाने
वाली वस्तु विनिमय व्यवस्था (Barter System) के बाद सिक्के प्रचलन में आये। यह
सिक्के विभिन्न धातुओं जैसे सोना तांबा, चाँदी इत्यादि से निर्मित किये जाते थे।
प्राचीन भारतीय सिक्कों की एक विशिष्टता यह है कि इनमे अभिलेख नहीं पाए गए हैं।
आमतौर प्राचीन सिक्कों पर चिह्न पाए गए हैं। इस प्रकार से सिक्कों को आहत सिक्के
कहा जाता है। इन सिक्कों का सम्बन्ध ईसा से पहले 5वीं सदी से है। उसके पश्चात्
सिक्कों में थोडा बदलाव आया, इन सिक्कों में तिथियाँ, राजा तथा देवताओं के चित्र
अंकित किये जाने लगे। आहत सिक्कों के सबसे प्राचीन भंडार पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा
मगध से प्राप्त हुए हैं। भारत में स्वर्ण मुद्राएं सबसे पहले हिन्द-यूनानी शासकों
ने जारी की, और इन शासकों ने सिक्कों के निर्माण में “डाई विधि” का उपयोग किया।
कुषाण शासकों द्वारा जारी की गयी स्वर्ण मुद्राएं सबसे अधिक शुद्ध थी। जबकि गुप्त
शासकों द्वारा सबसे ज्यादा मात्र में स्वर्ण मुद्राएं जारी की। सातवाहन शासकों ने
सीसे की मुद्राएं जारी की।
प्राचीन भारत की जानकारी के लिए अन्य
उपयोगी पुरातात्विक स्त्रोत:-
अभिलेख एवं सिक्कों से प्राचीन काल के सम्बन्ध
में काफी सटीक जानकारी प्राप्त होती है। लेकिन अभिलेखों और सिक्कों के अलावा अन्य
महत्वपूर्ण स्त्रोत भी हैं जिनसे प्राचीन काल के सम्बन्ध में उपयोगी जानकारी
प्राप्त होती है, इन स्त्रोतों में इमारतें, मंदिर, स्मारक, मूर्तियाँ, मिट्टी से
बने बर्तन तथा चित्रकला प्रमुख है।
प्राचीनकाल की वास्तुकला की जानकारी के लिए
इमारतें जैसे मंदिर व भवन काफी उपयोगी स्त्रोत हैं। वास्तुकला की जानकारी के
साथ-साथ इन इमारतों से उस समय की सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक व्यवस्था की भी
जानकारी मिलती है।
प्राचीन भारत की जानकारी के सम्बन्ध में स्मारक
अति महत्वपूर्ण है, इन स्मारकों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है – देशी
तथा विदेशी स्मारक। देशी स्मारकों में हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, नालंदा, हस्तिनापुर
प्रमुख हैं। जबकि विदेशी समारकों में कंबोडिया का अंकोरवाट मंदिर, इंडोनेशिया में
जावा का बोरोबुदूर मंदिर तथा बाली से प्राप्त मूर्तियाँ प्रमुख हैं। बोर्नियों के
मकरान से प्राप्त मूर्तियों में कुछ तिथियाँ अंकित हैं, यह तिथियाँ कालक्रम को
स्पष्ट करने में काफी उपयोगी हैं। इन स्त्रोतों से प्राचीनकाल की वास्तुकला शैली
के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
भारत में कई धर्मों का उद्भव व विकास होने के
कारण धार्मिक मूर्तियाँ काफी प्रचलं में रही हैं। मूर्तियाँ प्राचीन काल की
धार्मिक व्यवस्था, संस्कृति एवं कला के बारे में जानकारी प्राप्त करने का
महत्वपूर्ण साधन है। प्राचीन भारत में सारनाथ, भरहुत, बोधगया और अमरावती मूर्तिकला
के मुख्य केंद्र थे। विभिन्न मूर्तिकला शैलियों में गांधार कला तथा मथुरा कला
प्रमुख हैं।
मृदभांड का प्रकार समय के साथ साथ परिवर्तित होता
गया, सिन्धु घाटी सभ्यता में लाल मृदभांड, उत्तरवैदिक काल में चित्रित धूसर
मृदभांड जबकि मौर्य काल में काले पॉलिश किये गए मृदभांड प्रचलित थे। मृदभांड के
प्रकार व रूप में नवीनता व प्रगति अलग अलग समयकाल में हुई।
चित्रकला से प्राचीनकाल के समाज व व्यवस्थाओं के
बारे में विविध जानकारी प्राप्त होती है। चित्रों के माध्यम से प्राचीन समय के
लोगो के जीवन, संस्कृति तथा कला की जानकारी मिलती है। मध्य प्रदेश में स्थित
भीमबेटका की गुफाओं के चित्र से प्राचीनकाल की सांस्कृतिक विविधता का आभास होता
है।
(ii) साहित्यिक स्त्रोत
भारत के इतिहास में के सन्दर्भ में सर्वाधिक
स्त्रोत साहित्यिक स्त्रोत हैं। प्राचीन काल में पुस्तकें हाथ से लिखी जाती थी,
हाथ से लिखी गयी इन पुस्तकों को पांडुलिपि कहा जाता है। पांडुलिपियों को
ताड़पत्रों तथा भोजपत्रों पर लिखा जाता था। इस प्राचीन साहित्य को 2 भागों
में बांटा जा सकता है :-
1-धार्मिक साहित्य
भारत में प्राचीन काल में तीन मुख्य धर्मो
हिन्दू, बौद्ध तथा जैन धर्म का उदय हुआ। इन धर्मों के विस्तार के साथ-साथ विभिन्न
दार्शनिकों, विद्वानों तथा धर्माचार्यो द्वारा अनेक धार्मिक पुस्तकों की रचना की
गयी।इन रचनाओं में प्राचीन भारत के समाज, संस्कृति, स्थापत्य, लोगों की जीवनशैली व
अर्थव्यवस्था इत्यादि के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। धार्मिक
साहित्य की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं:
हिन्दू धर्म से सम्बंधित साहित्य
हिन्दू धर्म विश्व का सबसे प्राचीनतम धर्मो में
से एक है। प्राचीन भारत में इसका उदय होने से प्राचीन भारतीय समाज की विस्तृत
जानकारी हिन्दू धर्म से सम्बंधित पुस्तकों से मिलती हैं।हिन्दू धर्म में अनेक
ग्रन्थ, पुस्तकें तथा महाकाव्य इत्यादि की रचना की गयी हैं, इनमे प्रमुख रचनाएँ इस
प्रकार से है – वेद, वेदांग, उपनिषद, स्मृतियाँ, पुराण, रामायण एवं महाभारत। इनमे
ऋग्वेद सबसे प्राचीन है। इन धार्मिक ग्रंथों से प्राचीन भारत की
राजव्यवस्था, धर्म, संस्कृति तथा सामाजिक व्यवस्था की विस्तृत जानकारी मिलती है।
वेद:- हिन्दू धर्म में वेद अति महत्वपूर्ण साहित्य हैं, वेद की कुल संख्या चार है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद 4 वेद हैं। ऋग्वेद विश्व की सबसे प्राचीन पुस्तकों में से एक है, इसकी रचना लगभग 1500-1000 ईसा पूर्व के समयकाल में की गयी। जबकि यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद की रचना लगभग 1000-500 ईसा पूर्व के समयकाल में की गयी। ऋग्वेद में देवताओं की स्तुतियाँ हैं। यजुर्वेद का सम्बन्ध यज्ञ के नियमों तथा अन्य धार्मिक विधि-विधानों से है। सामवेद का सम्बन्ध यज्ञ के मंत्रो से है। जबकि अथर्ववेद में धर्म, औषधि तथा रोग निवारण इत्यादि के बारे में लिखा गया है।
ब्राह्मण:- ब्राह्मणों को वेदों के साथ सलंगन किया गया है, ब्राह्मण वेदों के ही भाग हैं।प्रत्येक वेद के ब्राह्मण अलग हैं। यह ब्राह्मण ग्रंथ गद्य शैली में हैं, इनमे विभिन्न विधि-विधानों तथा कर्मकांड का विस्तृत वर्णन है। ब्राह्मणों में वेदों का सार सरल शब्दों में दिया गया है, इन ब्राह्मण ग्रंथों की रचना विभिन्न ऋषियों द्वारा की गयी। ऐतरेय तथा शतपथ ब्राह्मण ग्रंथो के उदहारण हैं।
आरण्यक:- आरण्यक शब्द ‘अरण्य’ से से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ “वन” होता है। आरण्यक वे धर्म ग्रन्थ हैं जिन्हें वन में ऋषियों द्वारा लिखा गया। आरण्यक ग्रंथों में अध्यात्म तथा दर्शन का वर्णन है, इनकी विषयवस्तु काफी गूढ़ है। आरण्यक की रचना ग्रंथो के बाद हुई और यह अलग-अलग वेदों के साथ संलग्न है, परन्तु अथर्ववेद को किसी भी आरण्यक से नहीं जोड़ा गया है।
वेदांग:- जैसा की नाम से स्पष्ट है, वेदांग, वेदों के अंग हैं। वेदांगों में वेद के गूढ़ ज्ञान को सरल भाषा में लिखा गया है। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद व ज्योतिष कुल 6 वेदांग हैं।
उपनिषद:- उपनिषदों की विषयवस्तु दार्शनिक है, यह ग्रंथों के अंतिम भाग हैं। इसलिए इन्हें वेदांत भी कहा जाता है। उपनिषदों में प्रशनोत्तरी के माध्यम से अध्यात्म व दर्शन के विषय पर चर्चा की गयी है।उपनिषद श्रुति धर्मग्रन्थ हैं।उपनिषदों में ईश्वर और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का विस्तृत वर्णन किया गया है। यह भारतीय दर्शन (philosophy) की प्राचीनतम पुस्तकों में से एक हैं। उपनिषदों की कुल संख्या 108 है। वृहदारण्यक, कठ, केन ऐतरेय, ईशा, मुण्डक तथा छान्दोग्य कुछ प्रमुख उपनिषद हैं।
स्मृतियाँ
स्मृतियों में मनुष्य के जीवन के सम्पूर्ण
कार्यों की विवेचना की गयी है, इन्हें धर्मशास्त्र भी कहा जाता है।ये वेदों की
अपेक्षा कम जटिल हैं। इनमे कहानीयों व उपदेशों का संकलन है। इनकी रचना
सूत्रों के बाद हुई। मनुसमृति व याज्ञवल्क्य स्मृति सबसे प्राचीन स्मृतियाँ हैं।
मनुस्मृति पर मेघतिथि, गोविन्दराज व कुल्लूकभट्ट ने टिपण्णी की है। जबकि
याज्ञवल्क्य स्मृति पर विश्वरूप, विज्ञानेश्वर तथा अपरार्क ने टिपण्णी की है।
ब्रिटिश शासनकाल में बंगाल के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने मनुस्मृति का
अंग्रेजी में अनुवाद करवाया, अंग्रेजी में इसका नाम “द जेंटू कोड” रखा गया। आरम्भ
में स्मृतियाँ केवल मौखिक रूप से अग्रेषित की जाती थीं, स्मृति शब्द का अर्थ
“स्मरण करने की शक्ति” होता है।
रामायण:- रामायण की रचना महर्षि वाल्मीकि ने की। रचना के समय रामायण में 6,000 श्लोक थे, परन्तु समय के साथ साथ इसमें बढ़ोत्तरी होती गयी। श्लोकों की संख्या पहले बढ़कर 12,000 हुई तथा उसके पश्चात् यह संख्या 24,000 तक पहुँच गयी।24,000 श्लोक होने के कारण रामायण को चतुर्विशति सहस्री संहिता भी कहा जाता है। रामायण को कुल 7 खंडो में विभाजित किया गया है – बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड तथा उत्तरकाण्ड।
महाभारत:- महाभारत विश्व के सबसे बड़े महाकाव्यों में से एक है, इसकी रचना महर्षि वेद व्यास ने की। यह एक काव्य ग्रन्थ है। इसे पंचम वेद भी कहा जाता है। यह प्रसिद्ध यूनानी ग्रंथों इलियड और ओडिसी की तुलना में काफी बड़ा है।
रचना के समय इसमें 8,800 श्लोक थे, जिस कारण इसे
जयसंहिता कहा जाता था। कालांतर में श्लोकों की संख्या बढ़कर 24,000 हो गयी,
जिस कारण इसे भारत कहा गया। गुप्तकाल में श्लोकों की संख्या 1 लाख होने पर
इसे महाभारत कहा गया। महाभारत को 18 भागों में बांटा गया है – आदि, सभा, वन,
विराट, उद्योग, भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य, सौप्तिक, स्त्री, शांति, अनुशासन,
अश्वमेध, आश्रमवासी, मौसल, महाप्रस्थानिक तथा स्वर्गारोहण। महाभारत में न्याय, शिक्षा,
चिकित्सा, ज्योतिष, नीति, योग, शिल्प व खगोलविद्या इत्यादि का विस्तार से वर्णन
किया गया है।
पुराण:- पुराणों में सृष्टि, प्राचीन ऋषि मुनियों व राजाओं का वर्णन है।पुराणों की कुल संख्या 18 है, प्राचीन आख्यानों का वर्णन होने से इन्हें पुराण कहा जाता है। इनकी रचना संभवतः ईसा से पांचवी शताब्दी पूर्व की गयी थी। विष्णु पुराण, मतस्य पुरान, वायु पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण तथा भागवत पुराण काफी महत्वपूर्ण पुराण हैं, इन पुराणों में विभिन्न राजाओं की वंशावलियों का वर्णन है। इसलिए यह पुराण ऐतिहासिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण हैं।
पुराणों में विभिन्न देवी-देवताओं को केंद्र
मानकर पाप व पुण्य, धर्म-कर्म इत्यादि का वर्णन किया गया है।मतस्य पुराण में
सातवाहन वंश का वर्णन है जबकि वायु पुराण में गुप्त वंश का वर्णन है।
मार्कंडेय पुराण में देवी दुर्गा का वर्णन है, इसमें दुर्गा सप्तति का उल्लेख भी
मिलता है। अग्नि पुराण में गणेश पूजा की विवेचना की गयी है। 18 पुराणों के
नाम इस प्रकार से हैं – ब्रह्मा, मार्कंडेय, स्कन्द, पद्म, अग्नि, वामन, विष्णु,
भविष्य, कूर्म, शिव, ब्रह्मावर्त, मतस्य, भागवत, लिंग, गरुड़, नारद, वराह तथा
ब्रह्माण्ड पुराण।
विष्णु, वायु, मत्स्य और भागवत पुराण में राजाओं
की वंशावलियां शामिल है, इन संक्षिप्त वंशावलियों से प्राचीन भारत के विभिन्न
शासकों व उनके कार्यकाल के सन्दर्भ में जानकारी मिलती है।
बौद्ध धर्म से सम्बंधित साहित्य:- बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ-साथ इसके साहित्य में भी वृद्धि हुई, बौद्ध साहित्य के मुख्य अंग जातक और पिटक हैं। जातक में महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्मो का वर्णन है। यह कथाएँ हैं, इसमें प्राचीन भारत के समाज की जानकारी मिलती है। त्रिपिटक सबसे पुराना बौद्ध साहित्य का ग्रन्थ है, त्रिपिटक की रचना महात्मा बुद्ध के निर्वाण के पश्चात की गयी थी।इनकी रचना पाली भाषा में की गयी है। त्रिपिटक के तीन भाग हैं – सुत्तपिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्मपिटक। त्रिपिटक में प्राचीन भारत की सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था का आभास होता है। सुत्तपिटक के 5 निकाय हैं -दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुक्त निकाय, अंगुत्तर निकाय तथा खुद्दक निकाय। विनयपिटक में बौद्ध संघ के नियमों का वर्णन है, इसके चार भाग हैं – सुत्तविभंगु, खंदक, पातिमोक्ख तथा परिवार पाठ। अभिधम्मपिटक की विषयवस्तु दार्शनिक है, इसमें महात्मा बुद्ध की दार्शनिक शिक्षा का वर्णन है। अभिधम्मपिटक से जुड़े हुए 7 कथानक ग्रन्थ हैं।
जैन धर्म से सम्बंधित साहित्य:- प्राचीन जैन ग्रंथो को पूर्व कहा जाता है। इसमें महावीर का द्वारा प्रतिपादित किये गये सिद्धांतों का वर्णन है। यह प्राकृत भाषा में लिखे गए हैं। जैन धर्म साहित्य में में आगम काफी महत्वपूर्ण हैं, इसके 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण व 6 छेद सूत्र हैं।
इनकी रचना जैन धर्म के श्वेताम्बर सम्प्रदाय के
आचार्यों द्वारा की गयी थी। इनकी रचना प्राकृत, संस्कृत तथा अपभ्रंश में की गयी
है। जैन धर्म के ग्रंथों का संकलन 6वीं शताब्दी में गुजरात के वल्लभी नगर ने
किया गया। अन्य मुख्य जैन ग्रन्थ आचारांगसूत्र, भगवती सूत्र, परिशिष्टपर्वन
व भाद्रबाहुचरित हैं।
भगवती सुत्र– इसमें महावीर स्वामी के जीवन तथा अन्य
समकालिकों के साथ उनके संबंधों का विवरण है.
इसी में 16 महाजनपदों का भी विवरण है.
1. अंग –
उतरी बिहार का आधुनिक मुंगेर
तथा भागलपुर जिला इसके अंतर्गत आता था, इसकी राजधानी थी चम्पा। चम्पा
का प्राचीन नाम मालिनी था। यहां का राजा ब्रह्मदत्त था, बाद
में बिम्बिसार ने अंग को जीतकर मगध साम्राज्य का हिस्सा बना
लिया।
2. मगध –
यह वर्तमान पटना और गया
का क्षेत्र था। इसकी राजधानी गिरिब्रज/राजगृह थी। यह सोलह
महाजनपदों में सर्वधिक शक्तिशाली साम्राज्य था।
3. काशी –
आधुनिक बनारस और उसके
आसपास के क्षेत्रों को काशी महाजनपद कहा गया। इस महाजनपद की राजधानी वाराणसी थी।
वाराणसी वरुणा एवं असी नदियों के मध्य स्थित है इसलिए इसका नाम
वाराणसी पड़ा है। काशी को अजातशत्रु के शासनकाल में मगध में मिला लिया गया।
4. कोशल –
इसकी राजधानी श्रावस्ती/अयोध्या थी।
कोशल को भी मगध साम्राज्यवाद का शिकार बनना पड़ा। अजातशत्रु ने अपने पराक्रम से
कोशल को भी मगध में मिला लिया।
5. वज्जि –
वज्जि आठ जनों का संघ
था। इनमें विदेह, लिच्छवि, कत्रिक एवं वृज्जि महत्वपूर्ण थे। इसकी राजधानी विदेह
एवं मिथिला थी। लिच्छवियों की राजधानी वैशाली थी, जो
अपने समय का महत्वपूर्ण नगर था। अजातशत्रु ने वज्जि को जीतकर मगध साम्राज्य का अंग
बना लिया।
6. मल्ल –
आधुनिक देवरिया एवं
गोरखपुर क्षेत्र में स्थित मल्ल दो भागों में बंटा था, जिसमें एक की राजधानी कुशावती
अथवा कुशीनगर एवं दूसरी की राजधानी पावापुरी थी।
कुशीनारा में महात्मा बुद्ध का महापरिनिर्वाण (मृत्यु) एवं पावापुरी में महावीर को
निर्वाण (मृत्यु) प्राप्त हुआ। मल्लराजा सृस्तिपाल के राजप्रासाद
में महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त हुआ था।
7. चेदि –
इसकी राजधानी शक्तिमती थी।।
वर्तमान में उत्तर प्रदेश के अंदर जो बुंदेलखंड वाला स्थान है वहां पर थी यह चेदि
महाजनपद।
8. वत्स –
यमुना के किनारे स्थित
वत्स महाजनपद आज का इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के आस-पास का क्षेत्र था। इसकी
राजधानी कौशाम्बी थी
9. कुरु –
आज का दिल्ली, मेरठ और
हरियाणा के कुछ क्षेत्र उस समय का कुरु महाजनपद था। इसकी राजधनी इंद्रप्रस्थ थी
जिसका उल्लेख महाभारत में मिलता है।
10. पांचाल –
यह वर्तमान बरेली,
बदायूँ, फर्रूखाबाद (उत्तर प्रदेश) का क्षेत्र था। गंगा नदी इस महाजनपद को दो
भागों – उत्तरी पांचाल तथा दक्षिणी पांचाल में बांटती है। उतरी पांचाल की
राजधानी अहिच्छत्र तथा दक्षिणी पांचाल की राजधानी कांपिल्य थी।
कान्यकुब्ज का प्रसिद्ध नगर इसी राज्य में स्थित था। द्रौपदी इसी राज्य की कन्या
थी।
11. मत्स्य –
अभी का जो जयपुर
(राजस्थान) के आस-पास का क्षेत्र है वो सभी मत्स्य महाजनपद के अंतर्गत आते थे।
इसकी राजधानी विराटनगर थी। और देखियेगा जो महाभारत काल में
पांडवों को बारह वर्ष का वनवास तथा एक वर्ष का अज्ञातवास जो मिला है तो अपना एक
वर्ष का अज्ञातवास पांडवों ने इसी विराटनगर में गुजारा था।
12. शूरसेन –
शूरसेन महाजनपद का
विस्तार आधुनिक मथुरा के आस-पास थी। इसकी राजधानी मथुरा थी।
13. अश्मक –
इसकी राजधानी थी पोतन/पोटली।
यह अश्मक वही है जो दक्षिण में गोदावरी नदी के तट पर बसा एकमात्र महाजनपद था।
14. अवन्ति –
यह वर्तमान मालवा (मध्य
प्रदेश) का क्षेत्र था। यह महाजनपद दो भागों- उतरी अवन्ति एवं दक्षिणी अवन्ति में
विभाजित था। उत्तरी अवन्ति की राजधानी उज्जैन तथा दक्षिणी अवन्ति
की राजधानी महिष्मति थी।
15. कम्बोज –
यह वर्तमान में
पाकिस्तान का हजारा जिला वाला क्षेत्र था। इसकी राजधानी थी हाटक।
16. गन्धार –
यह वर्तमान में
पाकिस्तान के रावलपिंडी और पेशावर के क्षेत्र थे। इसकी राजधानी तक्षशिला थी।
तक्षशिला जो है ये विश्वविद्यालय भी था।
2.गैर–धार्मिक साहित्य:- धर्म के अलावा अन्य साहित्य को धर्मेत्तर साहित्य कहा जाता है। इसमें ऐतिहासिक पुस्तकें, जीवनी, वृत्तांत इत्यादि शामिल हैं। गैर-धार्मिक साहित्य में विद्वानों व कूटनीतिज्ञों की रचनाएँ प्रमुख है। यह साहित्य अपेक्षाकृत सटीक है। इससे प्राचीन राज्यों में विद्यमान राजव्यवस्था, अर्थवयवस्था, लोगों की जीवनशैली तथा तत्कालीन समाज के बारे में उपयोगी जानकारी मिलती है।
6वीं शताब्दी में पाणिनि एक प्रसिद्ध संस्कृत
विद्वान था।पाणिनी द्वारा रचित “अष्टाध्यायी” संस्कृत व्याकरण है, इसमें 5वीं
शताब्दी ईसा पूर्व के समाज पर प्रकाश डाला गया है। मौर्यकाल में कौटिल्य की पुस्तक
“अर्थशास्त्र” से शासन व्यवस्था की महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। विशाखदत्त द्वारा
रचित “मुद्राराक्षस”, सोमदेव द्वारा रचित “कथासरितसागर” तथा क्षेमेद्र द्वारा रचित
“वृहतकथामंजरी” से मौर्यकाल के बारे में काफी जानकारी मिलती है। इन पुस्तकों में
तत्कालीन धार्मिक, आर्थिक व सामाजिक व्यवस्था सभी पहलुओं के बारे में पता चलता है।
पतंजलि द्वारा रचित “महाभाष्य” तथा कालिदास
द्वारा रचित “मालविकाग्निमित्र” से शुंग वंश के इतिहास के बारे में ज्ञात होता है।
शूद्रक द्वारा रचित “मृच्छकटीकम” तथा दंडी द्वारा रचित “दशकुमारचरित” से
गुप्तकाल की सामजिक व्यवस्था पर प्रकाश पड़ता है। बाणभट्ट द्वारा लिखी गयी
हर्षवर्धन की जीवनी “हर्श्चारिता” में सम्राट हर्षवर्धन का गुणगान किया गया
है। जबकि वाकपति द्वारा रचित “गौडवाहो” में कन्नौज के शासक यशोवर्मन और
विल्हण के “विक्रमांकदेवचरित” में कल्याणी के चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ की
उपलब्धियों का गुणगान किया गया है।
संध्याकरनंदी की रामचरितमानस में पाल राजा रामपाल
की उपलब्धियों का वर्णन है। हेमचन्द्र द्वारा रचित “द्वयाश्रय काव्य” में
गुजरात के शासक कुमारपाल की उपलब्धियों का गुणगान किया गया है। पद्मगुप्त की
“नवसहसांकचिरत” में परमार वंश तथा जयानक की “पृथ्वीराज विजय” में पृथ्वीराज चौहान
का वर्णन है। कल्हण द्वारा लिखित “राजतरंगिनी” भारतीय इतिहास की कालक्रम के लिए
अति महत्वपूर्ण पुस्तक है। इसमें विभिन्न राज्यों की वंशावलियों का विस्तृत वर्णन
किया गया है। यह पुस्तक 12वीं शताब्दी में कल्हण द्वारा लिखी गयी थी।
इसके कुल 8 अध्याय हैं।
दक्षिण भारत के इतिहास के सम्बन्ध में संगम
साहित्य से जानकारी प्राप्त होती है। यह साहित्य अधिकतर तमिल और संस्कृत में
है। संगम साहित्य में चोल, चेर तथा पांड्य शासनकाल की सामाजिक व्यवस्था,
अर्थव्यवस्था तथा संस्कृति इत्यादि का विस्तृत वर्णन है। उसके बाद के
इतिहास की जानकारी नंदिक्कलम्ब्कम, कलिंगतुपर्णी, चोलचरित इत्यादि से प्राप्त होती
है।
(iii) विदेशी स्त्रोत:-
विदेशी साहित्य से भी भारत के प्राचीन इतिहास के
बारे में काफी जानकारी मिलती है। यह विदेशी लेखक विदेशी राजाओं के साथ भारत आये
अथवा भारत की यात्रा पर आये, जिसके उपरान्त उन्होंने भारत की सामाजिक, आर्थिक तथा
भौगोलिक व्यवस्था का वर्णन किया। विदेशी साहित्यिक स्त्रोतों को 3 भागों में बांटा
जा सकता है – यूनानी व रोम के लेखक, चीनी लेखक तथा अरबी लेखक।
रोम व यूनानी लेखक
हेरोडोटस व टिसियस का वर्णन यूनानी लेखकों में
सबसे प्राचीन है। हेरोडोटस ने “हिस्टोरिका” नामक पुस्तक लिखी थी, इस पुस्तक भारत
और फारस के संबंधो पर प्रकाश डाला गया था, हेरोडोटस को इतिहास का पिता भी कहा जाता
है।यूनानी शासक सिकंदर के साथ काफी यूनानी लेखक भारत आये, इनमे नियार्कस,
आनासिक्रटस, अरिस्तोबुल्स के वृतांत महत्वपूर्ण हैं। अरिस्तोबुल्स ने
“हिस्ट्री ऑफ़ द वॉर” नामक पुस्तक लिखी, जबकि आनासिक्रटस ने सिकंदर की जीवनी
लिखी। सिकंदर के बाद मेगस्थनीज, डायमेकस तथा डायनोसीयस का योगदान भी महत्वपूर्ण
है। मेगास्थनीज़ के प्रसिद्ध पुस्तक इंडिका में मौर्यकालेन समाज, प्रशासन व
संस्कृति का वर्णन है। प्लिनी की पुस्तक “नेचुरल हिस्टोरिका” में भारत की वनस्पति,
पशुओं तथा खनिज पदार्थों के साथ-साथ भारत और इटली के मध्य व्यापारिक संबंधों का
उल्लेख भी देखने को मिलता है। टालेमी द्वारा रचित “जियोग्राफी” तथा
प्लूटार्क व स्ट्राबो की पुस्तकों में भी भारत के विभिन्न पहलुओं का विवरण दिया
गया है।
चीनी लेखक
चीनी मुख्यतः भारत में धार्मिक यात्रा के
उद्देश्य से आये थे। वे मुख्यतः बौद्ध धर्म का अध्ययन करने के उद्देश्य से भारत
आये। चीन से भारत आने वाले यात्रियों में फाह्यान, ह्वेन्त्सांग तथा इत्सिंग
प्रमुख हैं। फाह्यान चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में भारत आया, उसने अपनी
पुस्तक “फ़ो-क्यों-की” में भारतीय समाज, राजनीती तथा संस्कृति का वर्णन किया
है। ह्वेन्त्सांग हर्षवर्धन के शासनकाल में भारत आया, उसने अपने यात्रा
वृत्तांत में भारत की आर्थिक व सामाजिक स्थिति पर प्रकाश डाला। तिब्बती लेखक
तारानाथ ने अपनी पुस्तक “कंग्यूर” “तंग्युर” में भारतीय इतिहास पर प्रकाश डाला है।
अरबी लेखक
अरबी लेखक मुस्लिम आक्रान्ताओं के साथ भारत
आये।आठवीं शताब्दी में अरब शासकों ने भारत पर आक्रमण शुरू कर दिए, अरब शासकों के
साथ उनके लेखक व कवि भी भारत आये। 9वीं सदी में सुलेमान भारत आया, उसने पाल और
प्रतिहार राजाओं के बारे में लिखा है। अलमसुदी ने राष्ट्रकूट राजाओं का वृतांत
लिखा है। जबकि अलबरुनी ने अपनी पुस्तक “तहकीक ए हिन्द” में गुप्तकाल के पश्चात के
समाज के बारे में लिखा है
प्राचीन काल की कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकें व उनके
लेखक
पुस्तक का नाम |
लेखक |
बुद्धचरित |
अश्वघोष |
महाविभाषाशास्त्र |
वसुमित्र |
कामसूत्र |
वात्स्यायन |
मेघदूत |
कालिदास |
नाट्यशास्त्र |
भरतमुनि |
सूर्य सिद्धांत |
आर्यभट्ट |
वृहतसंहिता |
वराहमिहिर |
पञ्चतंत्र |
विष्णु शर्मा |
रत्नावली |
हर्षवर्धन |
पृथ्वीराजरासो |
चंदबरदई |
मालतीमाधव |
भवभूति |
गीत गोविन्द |
जयदेव |
कादम्बरी |
बाणभट्ट |
विदेशी लेखक एवं उनके
साहित्य
हेरोडोटस– इसे इतिहास का पिता कहा
जाता है. इसने हिस्टोरिका नामक पुस्तक की रचना की, जिसमें भारत तथा ईरान
(फारस) के बीच आपसी संबंधों का वर्णन है.
मेगास्थनीज- यह चन्द्रगुप्त मौर्य
के दरबार में सेल्यूकस निकेटर का राजदूत था. इसके द्वारा रचित इंडिका नामक पुस्तक
में मौर्यकालीन नगर प्रशासन तथा कृषि का वर्णन है.
डायमेकस- यह सीरियन नरेश
अन्तियोकस का राजदूत था, जो बिन्दुसार के दरबार में आया था.
डायनोसियस- यह मिस्र नरेश टॉलमी
फिलेडेल्फस का राजदूत था, जो बिन्दुसार के दरबार में आया था.
प्लिनी- इसने नेचुरल हिस्टोरिका
नामक पुस्तक लिखी. इसमें भारतीय पशु, पेड़-पौधों, खनिज पदार्थों आदि का वर्णन
है.
फाह्यान (399-415 ई०)- प्रथम चीनी यात्री जो
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के शासन काल में भारत आया था. अपनी पुस्तक में इसने
तत्कालीन भारतीय राजनीतिक तथा सामाजिक स्थितियों का वर्णन किया है.
ह्वेनसांग (629-644ई०)-
इसे यात्रियों के
सम्राट् या यात्रियों के राजकुमार के नाम से भी जाना जाता है. यह सम्राट्
हर्षवर्धन के शासनकाल में भारत आया था. इसके द्वारा लिखित यात्रा-वृतांत सी-यू-की
से तत्कालीन भारत के संबंध में जानकारी मिलती है. इसने नालन्दा विश्वविद्यालय में
अध्ययन तथा अध्यापन का कार्य किया.
इत्सिंग– यह भी एक चीनी यात्री
था. इसने 670 ई० के आस-पास भारत के बिहार प्रदेश का भ्रमण किया था. इसने नालंदा
विश्वविद्यालय में अध्ययन भी किया था.
Post a Comment