भारत की जलवायु
किसी स्थान या क्षेत्र में लम्बी अवधि तक जो मौसम की स्थिति होती है उसे उस स्थान की जलवायु कहते है। भारत की जलवायु उष्णकटिबंधीय मानसूनी जलवायु है।
भारत में मौसम संबंधी सेवा सन् 1875 में शुरू की गई थी. उस समय इसका मुख्यालय शिमला में था.
पहले विश्व युद्ध के बाद इसका मुख्यालय पुणे लाया गया. अब यहीं से ही भारत के मौसम संबंधी मानचित्र प्रकाशित होते हैं.
भारत की जलवायु को नियंत्रित करने वाले अनेक कारक हैं, जिन्हें मोटे तौर पर दो वर्गों में बाँटा जा सकता है -
(I) स्थिति तथा उच्चावच संबंधी कारक तथा
(II) वायुदाब एवं पवन संबंधी कारक।
स्थिति तथा उच्चावच संबंधी कारक
अक्षांश : कर्क रेखा पूर्व-पश्चिम दिशा में भारत के मध्य भाग से गुजरती है। इस प्रकार भारत का उत्तरी भाग शीतोष्ण कटिबंध में और कर्क रेखा के दक्षिण में स्थित भाग उष्ण कटिबंध में पड़ता है। उष्ण कटिबंध भूमध्य रेखा के अधिक निकट होने के कारण वर्ष भर ऊँचे तापमान तथा कम दैनिक और वार्षिक तापांतर का अनुभव करता है। कर्क रेखा से उत्तर में स्थित भाग में भूमध्य रेखा से दूर होने के कारण उच्च दैनिक तथा वार्षिक तापांतर के साथ विषम जलवायु पायी जाती है।
हिमालय पर्वतः उत्तर में ऊँचा हिमालय अपने सभी विस्तारों के साथ एक प्रभावी जलवायु विभाजक की भूमिका निभाता है। यह ऊँची पर्वत श्रृखंला उपमहाद्वीप को उत्तरी पवनों से अभेद्य सुरक्षा प्रदान करती है। जमा देने वाली ये ठंडी पवनें उत्तरी ध्रुव रेखा के निकट पैदा होती हैं और मध्य तथा पूर्वी एशिया में आर-पार बहती हैं। इसी प्रकार हिमालय पर्वत मानसून पवनों को रोककर उपमहाद्वीप में वर्षा का कारण बनता है।
जल और स्थल का वितरण : भारत के दक्षिण में तीन ओर हिंद महासागर व उत्तर की ओर ऊँची व अविच्छिन्न पर्वत श्रेणी है। स्थल की अपेक्षा जल देर से गर्म होता है और देर से ठंडा होता है। जल और स्थल के इस विभेदी तापन के कारण भारतीय उपमहाद्वीप में विभिन्न ऋतुओं में विभिन्न वायुदाब प्रदेश विकसित हो जाते हैं। वायुदाब में भिन्नता मानसून पवनों के उत्क्रमण का कारण बनती है।
समुद्र तट से दूरीः लंबी तटीय रेखा के कारण भारत के विस्तृत तटीय प्रदेशों में समकारी जलवायु पायी जाती है। भारत के अंदरूनी भाग समुद्र के समकारी प्रभाव से वंचित रह जाते हैं। ऐसे क्षेत्रों में विषम जलवायु पायी जाती है। यही कारण है कि मुंबई तथा कोंकण तट के निवासी तापमान की विषमता और ऋतु परिवर्तन का अनुभव नहीं कर पाते। दूसरी ओर समुद्र तट से दूर देश के आंतरिक भागों में स्थित दिल्ली, कानपुर और अमृतसर में मौसमी परिवर्तन पूरे जीवन को प्रभावित करते हैं।
समुद्र तल से ऊँचाई : ऊँचाई के साथ तापमान घटता है। विरल वायु के कारण पर्वतीय प्रदेश मैदानों की तुलना में अधिक ठंडे होते हैं। उदाहरणतः आगरा और दार्जिलिंग एक ही अक्षांश पर स्थित हैं किंतु जनवरी में आगरा का तापमान 16° सेल्सियस जबकि दार्जिलिंग में यह 4° सेल्सियस होता है।
उच्चावचः भारत का भौतिक स्वरूप अथवा उच्चावच तापमान, वायुदाब, पवनों की गति एवं दिशा तथा ढाल की मात्रा और वितरण को प्रभावित करता है। उदाहरणतः जून और जुलाई के बीच पश्चिमी घाट तथा असम के पवनाभिमुखी ढाल अधिक वर्षा प्राप्त करते हैं जबकि इसी दौरान पश्चिमी घाट के साथ लगा दक्षिणी पठार पवनविमुखी स्थिति के कारण कम वर्षा प्राप्त करता है।
वायुदाब एवं पवनों से जुड़े कारक
भारत की स्थानीय जलवायुओं में पायी जाने वाली विविधता को समझने के लिए निम्नलिखित तीन कारकों की क्रिया-विधि को जानना आवश्यक है।
(I) वायुदाब एवं पवनों का धरातल पर वितरण,
(II) भूमंडलीय मौसम को नियंत्रित करने वाले कारकों एवं विभिन्न वायु संहतियों एवं जेट प्रवाह के अंतर्वाह द्वारा उत्पन्न ऊपरी वायुसंचरण और
(III) शीतकाल में पश्चिमी विक्षोभों तथा दक्षिण-पश्चिमी मानसून काल में उष्ण कटिबंधीय अवदाबों के भारत में अंतर्वहन के कारण उत्पन्न वर्षा की अनुकूल दशाएँ।
मानसूनी पवनों द्वारा समय-समय पर अपनी दिशा पूर्णतया बदल लेने के कारण भारत में निम्न चार ऋतु चक्रवत पायी जाती हैः-
(I) शीत ऋतु (15 दिसम्बर, से 15 मार्च तक)
(II) ग्रीष्म ऋतु (16 मार्च, से 15 जून तक)
(III) वर्षा ऋतु (16 जून, से 15 सितम्बर तक)
(IV) शरद ऋतु (16 सितम्बर, से 14 दिसम्बर तक)
शीत ऋतु :
शीत ऋतु में भारत का मौसम मध्य एवं पश्चिम एशिया में वायुदाब के वितरण से प्रभावित होता है। इस समय हिमालय के उत्तर में तिब्बत पर उच्च वायुदाब केंद्र स्थापित हो जाता है। इस उच्च वायुदाब केंद्र के दक्षिण में भारतीय उपमहाद्वीप की ओर निम्न स्तर पर धरातल के साथ-साथ पवनों का प्रवाह प्रारंभ हो जाता है। मध्य एशिया के उच्च वायुदाब केंद्र से बाहर की ओर चलने वाली धरातलीय पवनें भारत में शुष्क महाद्वीपीय पवनों के रूप में पहुँचती हैं। ये महाद्वीपीय पवनें उत्तर-पश्चिमी भारत में व्यापारिक पवनों के संपर्क में आती हैं। लेकिन इस संपर्क क्षेत्र की स्थिति स्थायी नहीं है। कई बार तो इसकी स्थिति खिसककर पूर्व में मध्य गंगा घाटी के ऊपर पहुँच जाती है। परिणामस्वरूप मध्य गंगा घाटी तक संपूर्ण उत्तर-पश्चिमी तथा उत्तरी भारत इन शुष्क उत्तर-पश्चिमी पवनों के प्रभाव में आ जाता है।
उत्तर भारत के मैदानी भागों में शीत ऋतु में वर्षा पश्चिम विक्षोभ या जेट स्ट्रीम के कारण होती है.
जाड़े के दिनों में (जनवरी-फरवरी) तमिलनाडु के तटों पर वर्षा लौटते हुए मानसून या उत्तरी पूर्वी मानसून के कारण होती है.
ग्रीष्म ऋतु :
गर्मी का मौसम शुरू होने पर जब सूर्य उत्तरायण स्थिति में आता है, उपमहाद्वीप के निम्न तथा उच्च दोनों ही स्तरों पर वायु परिसंचरण में उत्क्रमण हो जाता है। जुलाई के मध्य तक धरातल के निकट निम्न वायुदाब पेटी जिसे अंतःउष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (आई.टी.सी.शेड.) कहा जाता है, उत्तर की ओर खिसक कर हिमालय के लगभग समानांतर 20° से 25° उत्तरी अक्षांश पर स्थित हो जाती है। इस समय तक पश्चिमी जेट प्रवाह भारतीय क्षेत्र से लौट चुका होता है। वास्तव में मौसम विज्ञानियों ने पाया है कि भूमध्यरेखीय द्रोणी (आई.टी.सी.शेड.) के उत्तर की ओर खिसकने तथा पश्चिमी जेट प्रवाह के भारत के उत्तरी मैदान से लौटने के बीच एक अंतर्संबंध है। प्रायः ऐसा माना जाता है कि इन दोनों के बीच कार्य-कारण का संबंध है। अंतःउष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र निम्न वायुदाब का क्षेत्र होने के कारण विभिन्न दिशाओं से पवनों को अपनी ओर आकर्षित करता है। दक्षिणी गोलार्द्ध से उष्णकटिबंधीय सामुद्रिक वायु संहति (एम.टी.) विषुवत वृत्त को पार करके सामान्यतः दक्षिण-पश्चिमी दिशा में इसी कम दाब वाली पेटी की ओर अग्रसर होती है। यही आर्द्र वायुधारा दक्षिण-पश्चिम मानसून कहलाती है।
इस ऋतु में असम और पश्चिम बंगाल राज्यों में तीव्र आर्द्र हवाएं चलने लगती हैं, जिनसे गरज के साथ वर्षा हो जाती है.
इन हवाओं को पूर्वी भारत में नारवेस्टर और बंगाल में काल वैशाखी के नाम से जाना जाता है.
कर्नाटक में इन्हें चेरी ब्लास्म कहा जाता है जो कॉफी की कृषि के लिए लाभदायक है.
आम की फसल के लिए लाभदायक होने के कारण इसे दक्षिण भारत में आम्र वर्षा या मैंगो शावर भी कहा जाता है.
उत्तर पश्चिम भारत के शुष्क भागों में ग्रीष्म ऋतु में चलने वाली गर्म और शुष्क हवाओं को “लू” कहा जाता है.
ग्रीष्म ऋतु में आने वाले कुछ प्रसिद्ध स्थानीय तूफान
(I) आम्र वर्षाः ग्रीष्म ऋतु के खत्म होते-होते पूर्व मानसून बौछारें पड़ती हैं, जो केरल व तटीय कर्नाटक में यह एक आम बात है। स्थानीय तौर पर इस तूफानी वर्षा को आम्र वर्षा कहा जाता है, क्योंकि यह आमों को जल्दी पकने में सहायता देती है।
(II) फूलों वाली बौछारः इस वर्षा से केरल व निकटवर्ती कहवा उत्पादक क्षेत्रों में कहवा के फूल खिलने लगते हैं।
(III) काल बैसाखीः असम और पश्चिम बंगाल में अप्रैल के महीने में शाम को चलने वाली ये भयंकर व विनाशकारी वर्षायुक्त पवनें हैं। इनकी कुख्यात प्रकृति का अंदाजा इनके स्थानीय नाम काल बैसाखी से लगाया जा सकता है। जिसका अर्थ है- अप्रैल के महीने में आने वाली तबाही। चाय, पटसन व चावल के लिए ये पवनें अच्छी हैं। असम में इन तूफानों को ‘बारदोली छीड़ा’ कहा जाता है।
(IV) लूः उत्तरी मैदान में पंजाब से बिहार तक चलने वाली ये शुष्क, गर्म व पीड़ादायक पवनें हैं। दिल्ली और पटना के बीच इनकी तीव्रता अधिक होती है।
वर्षा ऋतु:
इस ऋतु में उत्तर पश्चिम भारत और पाकिस्तान में उष्णदाब का क्षेत्र बन जाता है, जिसे मानसून गर्त कहते हैं.
इसी समय उत्तरी उष्ण अभिसरण (NITC ) उत्तर की ओर खिसकने लगता है, जिसके कारण विषुवत रेखीय पछुआ पवन और दक्षिणी गोलार्द्ध की दक्षिण पूर्वी वाणिज्यिक पवन विषुवत रेखा को पार कर फेरेल के नियम का अनुसरण करते हुए भारत में प्रवाहित होने लगती हैं, जिसे दक्षिण पश्चिम मानसून के नाम से भी जाना जाता है।
भारत की ज्यादातर वर्षा ( लगभग 80 फीसदी) इसी मानसून में होती है.
भारत की प्रायद्वीपीय आकृति के कारण दक्षिण पश्चिम का मानसून दो शाखाओं में विभाजित किया गया है.
1-अरब सागर की शाखा: -अरब सागर शाखा का मानसून सबसे पहले भारत के केरल राज्य में जून के पहले हफ्ते में आता है. यहां यह पश्चिमी घाट पर्वत से टकरा कर केरल के तटों पर वर्षा करता है. इसे मानसून प्रस्फोट यानी मानसून ब्रस्ट कहा जाता है. मानसून द्वारा लाई गई कुछ आर्द्रता का 65 फीसदी भाग अरब सागर से आता है. अरब सागरीय मानसून की एक शाखा सिंध नदी के डेल्टा क्षेत्र से आगे बढ़कर राजस्थान के मरुस्थल से होती हुई सीधे हिमालय पर्वत से जा टकराती है और इसीलिए धर्मशाला के आस-पास अधिक वर्षा होती है. राजस्थान में सागरीय मानसून मार्ग में अवरोध न होने के कारण वर्षा का अभाव पाया जाता है क्यूंकि अरावली पर्वत माला इसके समानांतर पड़ती है.
2. बंगाल की खाड़ी की शाखा :- गारो, खासी और जयंतिया पहाड़ियों पर बंगाल की खाड़ी से आने वाली हवाएं अधिक वर्षा लाती हैं, जिसकी वजह से यहां स्थित मेघालय विश्व में सबसे ज्यादा वर्षा प्राप्त करने वाला स्थान है. मानसून द्वारा लाई गई कुछ आर्द्रता का 35 फीसदी भाग बंगाल की खाड़ी से आता है.
शरद ऋतु:
इस ऋतु को मानसून प्रत्यावर्तन का काल (रिट्रीटिंग मानसून सीजन) कहा जाता है.
इस ऋतु में बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति होती है.
इन चक्रवातों से ओडिशा, आंध्र प्रदेश और पश्चिमी तटीय क्षेत्र में गुजरात में काफी क्षति पहुंचती है.
भारतीय मानसून
भारत की जलवायु मानसूनी पवनों से बहुत अधिक प्रभावित है। ऐतिहासिक काल में भारत आने वाले नाविकों ने सबसे पहले मानसून परिघटना पर ध्यान दिया था। पवन तंत्र की दिशा उलट जाने (उत्क्रमन) के कारण उन्हें लाभ हुआ। चूँकि, उनके जहाज पवन के प्रवाह की दिशा पर निर्भर थे। अरबवासी जो व्यापारियों की तरह भारत आए थे उन लोगों ने पवन तंत्र के इस मौसमी उत्क्रमण को मानसून का नाम दिया। मानसून का प्रभाव उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में लगभग 20° उत्तर एवं 20° दक्षिण के बीच रहता है। मानसून की प्रक्रिया को समझने के लिए निम्नलिखित तथ्य महत्त्वपूर्ण हैं -
(अ) स्थल तथा जल के गर्म एवं ठंडे होने की विभ्रेदी प्रक्रिया के कारण भारत के स्थल भाग पर निम्न दाब का क्षेत्र उत्पन्न होता है, जबकि इसके आस-पास के समुद्रों के ऊपर उच्च दाब का क्षेत्र बनता है।
(ब) ग्रीष्म ऋतु के दिनों में अंतः उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्रा की स्थिति गंगा के मैदान की ओर खिसक जाती है (यह विषुवतीय गर्त है, जो प्रायः विषुवत् वृत्त से 5° उत्तर में स्थित होता है। इसे मानसून ऋतु में मानसून गर्त के नाम से भी जाना जाता है।)
(स) हिंद महासागर में मेडागास्कर के पूर्व लगभग 20° दक्षिण अक्षांश के ऊपर उच्च दाब वाला क्षेत्र होता है। इस उच्च दाब वाले क्षेत्र की स्थिति एवं तीव्रता भारतीय मानसून को प्रभावित करती है।
(द) ग्रीष्म ऋतु में, तिब्बत का पठार बहुत अधिक गर्म हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप पठार के ऊपर समुद्र तल से लगभग 9 कि॰मी॰ की ऊँचाई पर तीव्र ऊर्ध्वाधर वायु धाराओं एवं उच्च दाब का निर्माण होता है।
(य) ग्रीष्म ऋतु में हिमालय के उत्तर-पश्चिमी जेट धाराओं का तथा भारतीय प्रायद्वीप के ऊपर उष्ण कटिबंधीय पूर्वी जेट धाराओं का प्रभाव होता है।
इसके अतिरिक्त, दक्षिणी महासागरों के ऊपर दाब की अवस्थाओं में परिवर्तन भी मानसून को प्रभावित करता है। सामान्यतः जब दक्षिण प्रशांत महासागर के उष्ण कटिबंधीय पूर्वी भाग में उच्च दाब होता है तब हिंद महासागर के उष्ण कटिबंधीय पूर्वी भाग में निम्न दाब होता है, लेकिन कुछ विशेष वर्षों में वायु दाब की स्थिति विपरीत हो जाती है तथा पूर्वी प्रशांत महासागर के ऊपर हिंद महासागर की तुलना में निम्न दाब का क्षेत्र बन जाता है। दाब की अवस्था में इस नियतकालिक परिवर्तन को दक्षिणी दोलन के नाम से जाना जाता है। डार्विन, उत्तरी आस्ट्रेलिया (हिंद महासागर 12°30' दक्षिण/131° पूर्व) तथा ताहिती (प्रशांत महासागर 18° दक्षिण/149° पश्चिम) के दाब के अंतर की गणना मानसून की तीव्रता के पूर्वानुमान के लिए की जाती है। अगर दाब का अंतर ऋणात्मक है तो इसका अर्थ होगा औसत से कम तथा विलंब से आने वाला मानसून। एलनीनो, दक्षिणी दोलन से जुड़ा हुआ एक लक्षण है। यह एक गर्म समुद्री जल धारा है, जो पेरू की ठंडी धारा के स्थान पर प्रत्येक 2 या 5 वर्ष के अंतराल में पेरू तट से होकर बहती है। दाब की अवस्था में परिवर्तन का संबंध एलनीनो से है। इसलिए इस परिघटना को एंसो (ENSO) (एलनीनो दक्षिणी दोलन) कहा जाता है।
मानसून का आगमन एवं वापसी
व्यापारिक पवनों के विपरीत मानसूनी पवनें नियमित नहीं हैं, लेकिन ये स्पंदमान प्रकृति की होती हैं। उष्ण कटिबंधीय समुद्रों के ऊपर प्रवाह के दौरान ये विभिन्न वायुमंडलीय अवस्थाओं से प्रभावित होती हैं। मानसून का समय जून के आरंभ से लेकर मध्य सितंबर तक, 100 से 120 दिनों के बीच होता है। इसके आगमन के समय सामान्य वर्षा में अचानक वृद्धि हो जाती है तथा लगातार कई दिनों तक यह जारी रहती है। इसे मानसून प्रस्फोट (Mansoon brust) कहते हैं तथा इसे मानसून-पूर्व बौछारों से पृथक किया जा सकता है। सामान्यतः जून के प्रथम सप्ताह में मानसून भारतीय प्रायद्वीप के दक्षिणी छोर से प्रवेश करता है। इसके बाद यह दो भागों में बँट जाता है - अरब सागर शाखा एवं बंगाल की खाड़ी शाखा। अरब सागर शाखा लगभग दस दिन बाद, 10 जून के आस-पास मुंबई पहुँचती है। यह एक तीव्र प्रगति है। बंगाल की खाड़ी शाखा भी तीव्रता से आगे की ओर बढ़ती है तथा जून के प्रथम सप्ताह में असम पहुँच जाती है। ऊँचे पर्वतों के कारण मानसून पवनें पश्चिम में गंगा के मैदान की ओर मुड़ जाती है। मध्य जून तक अरब सागर शाखा सौराष्ट्र, कच्छ एवं देश के मध्य भागों में पहुँच जाती है। अरब सागर शाखा एवं बंगाल की खाड़ी शाखा, दोनो गंगा के मैदान के उत्तर-पश्चिम भाग में आपस में मिल जाती हैं। दिल्ली में सामान्यतः मानसूनी वर्षा बंगाल की खाड़ी शाखा से जून के अंतिम सप्ताह में (लगभग 29 जून तक) होती है। जुलाई के प्रथम सप्ताह तक मानसून पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा तथा पूर्वी राजस्थान में पहुँच जाता है। मध्य जुलाई तक मानसून हिमाचल प्रदेश एवं देश के शेष हिस्सां में पहुँच जाता है। मानसून की वापसी अपेक्षाकृत एक क्रमिक प्रक्रिया है जो भारत के उत्तर-पश्चिमी राज्यों से सितंबर में प्रारंभ हो जाती है। मध्य अक्तूबर तक मानसून प्रायद्वीप के उत्तरी भाग से पूरी तरह पीछे हट जाता है। प्रायद्वीप के दक्षिणी आधे भाग में वापसी की गति तीव्र होती है। दिसंबर के प्रारंभ तक देश के शेष भाग से मानसून की वापसी हो जाती है। द्वीपों पर मानसून की सबसे पहली वर्षा होती है। यह क्रमशः दक्षिण से उत्तर की ओर अप्रैल के अंतिम सप्ताह से लेकर मई के प्रथम सप्ताह तक होती है। मानसून की वापसी भी क्रमशः दिसंबर के प्रथम सप्ताह से जनवरी के प्रथम सप्ताह तक उत्तर से दक्षिण की ओर होती है। इस समय देश का शेष भाग शीत ऋतु के प्रभाव में होता है।
जिस वर्ष अल-नीनो की सक्रियता बढ़ती है, उस साल दक्षिण-पश्चिम मानसून पर उसका असर निश्चित रूप से पड़ता है। इससे पृथ्वी के कुछ हिस्सों में भारी वर्षा होती है तो कुछ हिस्सों में सूखे की गंभीर स्थिति भी सामने आती है। भारत भर में अल-नीनो के कारण सूखे की स्थिति उत्पन्न होती है, जबकि ला-नीना के कारण अत्यधिक बारिश होती है।
ला नीना की घटना साइबेरिया एवं दक्षिण चीन से आनेवाली ठंडी हवाओं के माध्यम से भारतीय उपमहाद्वीप को प्रभावित करता है, जो उष्णकटिबंधीय वायु के साथ मिलकर उत्तर-दक्षिण निम्न दाब तंत्रों का निर्माण करती है।
उत्तर-दक्षिण निम्न दाब क्षेत्र से संबंधित ला नीना की ठंडी हवाएँ भारत में दक्षिण की ओर विस्तारित होती है।
Post a Comment