विजयनगर साम्राज्य
- विजयनगर अथवा ‘‘विजय का शहर’’ एक शहर और एक साम्राज्य, दोनों के लिए प्रयुक्त नाम था। इस साम्राज्य की स्थापना चौदहवीं शताब्दी में की गई थी। अपने चरमोत्कर्ष पर यह उत्तर में कृष्णा नदी से लेकर प्रायद्वीप के सुदूर दक्षिण तक फैला हुआ था। 1565 में इस पर आक्रमण कर इसे लूटा गया और बाद में यह उजड़ गया।
- हालाँकि सत्राहवीं-अठारहवीं शताब्दियों तक यह पूरी तरह से विनष्ट हो गया था, पर फिर भी कृष्णा-तुंगभद्रा दोआब क्षेत्र के निवासियों की स्मृतियों में यह जीवित रहा। उन्होंने इसे हम्पी नाम से याद रखा। इस नाम का आविर्भाव यहाँ की स्थानीय मातृदेवी पम्पादेवी के नाम से हुआ था।इनकी राजभाषा तेलगू थी।
- विजयनगर साम्राज्य (Vijayanagar empire)में क्रमश: निम्न वंश ने शासन किया-
संगम वंश(1336 से 1485ई० तक)
- हरिहर एवं बुक्का ने विजयनगर की स्थापना की विद्यारण्य संत से आशीर्वाद प्राप्त करके की थी।
- हरिहर एवं बुक्का ने अपने पिता संगम के नाम पर संगम राजवंश की स्थापना की।
- विजयनगर साम्राज्य की राजधानी हम्पी थी। विजयनगर साम्राज्य के खंडहर तुगंभद्रा नदी पर स्थित है।
- हरिहर एवं बुक्का पहले काकतीय शासक प्रताप रुद्रदेव के सामंत थे।
- हरिहर द्वितीय ने संगम शासकों में सबसे पहले महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी।
- इटली का यात्री निकोलो कांटी विजयनगर की यात्रा पर देवराय प्रथम के शासनकाल में आया था।
- फारसी राजदूत अब्दुल रजाक देवराय द्वितीय के शासनकाल में विजयनगर आया था।
- संगम वंश का सबसे प्रतापी राजा देवराय द्वितीय था। इससे इमाडिदेवराय भी कहा जाता था।
- प्रसिद्ध तेलुगु कवि श्रीनाथ कुछ दिनों तक देवराय द्वितीय के दरबार में रहे।
- एक अभिलेख में देवराय द्वितीय को जगबेटकर (हाथियों का शिकारी) कहा गया है।
- देवराय द्वितीय ने संस्कृत ग्रंथ महानाटक सुधानिधि एवम ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा।
- मल्लिकार्जुन को प्रौढ़ देवराय भी कहा जाता था।
सालुव वंश (1485 से 1506ई० तक)
- सालुव नरसिंह ने विजय नगर में दूसरे राजवंश सालुव वंश की स्थापना की।
- सालुव वंश के बाद विजय नगर पर तुलुव वंश का शासन स्थापित हुआ।
तुलुव वंश (1505-1565ई०)
- तुलुव वंश की स्थापना वीर नरसिंह ने की थी।
- तुलुव वंश का महान शासक कृष्णदेव राय था। वह 8 अगस्त 1509 ईस्वी को शासक बना।
- सालुव तिम्मा, कृष्णदेवराय का योग्य मंत्री एवं सेनापति था।
- कृष्णदेवराय के शासनकाल में पुर्तगाली यात्री डोमिगोस पायस विजयनगर की यात्रा पर आया था।
- कृष्ण देवराय के दरबार में तेलुगु साहित्य के 8 सर्वश्रेष्ठ कवि रहते थे जिन्हें अष्टदिग्गज कहा जाता था।
- कृष्ण देवराय ने तेलुगु में अमुक्तमाल्यद एवं संस्कृत में जाम्बवती कल्याणम की रचना की।
- पांडुरंग महत्म्यम् की रचना तेनालीराम रामकृष्ण ने की थी।
- कृष्णदेव राय के शासन काल को तेलुगु साहित्य का क्लासिक युग कहा गया है।
- नागलपुर नामक नए नगर, हजारा एवं विट्ठल स्वामी मंदिर का निर्माण कृष्णदेव राय ने करवाया था।
- कृष्णदेव राय की मृत्यु 1529 ईसवी में हो गई।
- तुलुव वंश का अंतिम शासक सदाशिव था।
- राक्षसी-तंगड़ी या तालीकोटा या बन्नीहट्टी का युद्ध 25 जनवरी 1565 ईस्वी में हुआ। इसी युद्ध के कारण विजयनगर का पतन हुआ।
- विजय नगर के विरुद्ध बने दक्षिण राज्यों के संघ में शामिल था- बीजापुर , अहमदनगर , गोलकुंडा, एवं बिदर इस संयुक्त मोर्चे का नेतृत्व अली आदिलशाह कर रहा था।
- तालीकोटा का युद्ध में विजय नगर का नेतृत्व रामराय कर रहा था।
- तालीकोटा युद्ध के बाद सदस्यों ने तिरुमल के सहयोग से पेनुकोंडा को राजधानी बनाकर शासन करना प्रारंभ किया।
अरावीडु वंश (1570-1650 ई०)
- विजयनगर के चौथे राजवंश अरावीडु वंश की स्थापना तिरुमल ने सदाशिव को अपदस्थ कर पेनुकोंडा में किया।
- अरावीडु वंश का अंतिम शासक रंग तृतीय था।
- अरावीडु शासक वेंकट द्वितीय के शासनकाल में ही वोडेयार ने 1612 ईस्वी में मैसूर राज्य की स्थापना की थी।
- विजयनगर साम्राज्य की प्रशासनिक इकाई का घटते हुए क्रम में इस प्रकार था-प्रांत (मंडल) > कोट्टम या वलनाडु (जिला) > नाडु > मेलाग्राम (50 ग्राम का समूह) > ऊर (ग्राम)।
- विजयनगर कालीन सेनानायकों को नायक कहा जाता था। यह नायक वस्तुतः भूसामंत थे जिन्हें राजा वेतन के बदले अथवा उनकी अधीनस्थ सेना के रखरखाव के लिए विशेष भूखंड दे देता था जो अमरम् कहलाता था।
- विजयनगर साम्राज्य की आय का सबसे बड़ा स्रोत लगान था।
विजयनगर साम्राज्य के दौरान भारत आने वाले विदेशी यात्री |
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यात्री |
देश |
काल |
शासक |
निकोलो
कोंटी |
इटली |
1420 ई. |
देवराय प्रथम |
अब्दुर्रज्जाक |
फारस |
1442 ई. |
देवराय द्वितीय |
नूनिज |
पुर्तगाल |
1535 ई. |
अच्युत राय |
डोमिंग
पायस |
पुर्तगाल |
1515 ई. |
कृष्णदेव राय |
बारबोसा |
पुर्तगाल |
1515-16 ई. |
कृष्णदेव राय |
प्रशासन व्यवस्था :
विजयनगर साम्राज्य का केन्द्रीय प्रशासन तीन भागों में बंटा हुआ था -
पहला - राजपरिषद् : यह राजा द्वारा गठित एक सलाहाकार समिति होती थी, जिसमें विद्वान व्यक्ति शामिल होते थे। जो किसी विषय पर अपनी-अपनी बुद्धी के अनुसार अपने मत देते थे। इसके अलावा वे नए युवराज का राज्याभिषेक भी करवाते थे।
दूसरा - मंत्रीपरिषद् : इस परिषद् के प्रमुख अधिकारी को "प्रधानी या महाप्रधानी" कहा जाता था तथा जो बैठक की अध्यक्षता करवाता था उस अध्यक्ष को "सभानायक" कहा जाता था।
तीसरा - सामान्य परिषद् : इसका सर्वप्रमुख कार्य राजा को परामर्श देना और राज्य के अन्य कार्यों को देखना होता था। इन परामर्शकर्ताओं के परामर्श को मानना राजा के ऊपर निर्भर करता था, वह अपनी इच्छानुसार इनके परामर्श को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता था।
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