उत्तराखण्ड राजनीतिक-प्रशासनिक ढांचा

 



09 नवम्बर, 2000 को उत्तर प्रदेश से अलग होकर 11 वें राज्य के रूप में 13 जिलों को मिलाकर उत्तरांचल का गठन किया गया। 01 जनवरी, 2007 से उत्तंराचल का नाम परिवर्तन कर इसका नाम उत्तराखण्ड कर दिया गया।

शासन-प्रशासन

देश के अन्य राज्यों की तरह इसका भी शासन-प्रशासन संविधान के अध्याय-6 के अनुरूप संचालित होता है। संविधान के अनुरूप राज्य में शासन-प्रशासन की संसदात्मक प्रणाली लागू है। जो तीन प्रमुख अंग में विभक्त है। (1)कार्यपालिका(2)विधान मण्डल(3)उच्च तथा अधीनस्थ न्यायालय

कार्यपालिका

राज्यपालः- संविधान के अनुच्छेद 153 के अनुसार राज्यों के लिए राज्याध्यक्ष की व्यवस्था है। जिसे राज्यपाल या गर्वनर के नाम से जाना जाता है। राज्य की कार्यपालिका शक्ति इस में निहित है, परन्तु वह इसका प्रयोग अपने अधीनस्थों के माध्यम से करता है। वह राज्य का संवैधानिक प्रमुख और विवेकाधीन शक्तियों प्रयोग करते समय वास्तविक प्रमुख होता है। राज्य के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति और राज्य का प्रथम नागरिक राज्यपाल होता है। राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा पांच वर्ष के लिए की जाती है। और वह उसी के प्रसादपर्यन्त पदधारण करता है। राष्ट्रपति जब चाहे उसे पद से हटा या अन्य प्रदेश में स्थानान्तरित कर सकता है। वर्तमान में उत्तराखण्ड की राज्यपाल बेबीरानी मौर्य (7 वीं राज्यपाल) है।

मंत्रिपरिषद- संविधान के अनुच्छेद-164 के अनुसार राज्यपाल सर्वप्रथम मुख्यमंत्री की नियुक्ति करता है और उसकी सलाह पर अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है। तथा पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाता है। राज्य की मंत्रिपरिषद अनेक प्रशासनिक, विधायी तथा वित्तीय संबंधी कार्य करती है। यही मंत्रिपरिषद वास्तविक कार्यपालिका का कार्य संचालन करती है। मंत्रिपरिषद ही विधानमण्डल की पथ-प्रदर्शक तथा शाासन की धूरी है। यह एक कडी है जो कार्यपालिका अंग को व्यवस्थापिका से जोडती है। वर्तमान में राज्य के मंत्रिपरिषद में 09 मंत्री(उत्तराखण्ड में मंत्रिपरिषद हेतु 11 सीट आरक्षित है) शामिल है। जोकि किसी राज्य की कुल विधानसभा सीटों का 15 प्रतिशत होता है।

मुख्यमंत्रीः- राज्य कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान मुख्यमंत्री होता है। वह राज्य शासन का मुखिया होता है और मंत्रिमण्डल में उसकी विशिष्ट स्थिति होती है। उसके कार्यो एवं दायित्वों की दृष्टि से उसे प्रधानमंत्री का लघु रूप कहा जा सकता है। वर्तमान में उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत(8 वें मुख्यमंत्री) है।

सचिवालयः- राज्य के वास्तविक कार्यपालिका (मंत्रिपरिषद) के सदस्य जनप्रतिनिधि होते है। इनकी प्रशासनिक सहायता एवं परामर्श के लिए मुख्य सचिव के नेतृत्व में एक विशुद्ध प्रशासनिक निकाय का गठन किया गया है। जिसे राज्य सचिवालय कहते है। राज्य सचिवालय के प्रशासनिक अध्यक्ष को मुख्य सचिव और प्रत्येक विभागों के सचिव को सचिव कहा जाता है। जो प्रायः प्रशासनिक सेवाओं से जुडे अधिकारी होते है। मुख्य सचिव राज्य प्रशासन की धूरी होता है। वर्तमान में उत्तराखण्ड के मुख्य सचिव ओमप्रकाश हैं।

कार्यकारी विभाग (निदेशालय)- राज्य प्रशासन में मंत्रिपरिषद, राज्य सचिवालय के बाद तीसरा मुख्य स्तम्भ कार्यकारी विभाग(निदेशालय) का होता है। ऊपर के दोनो स्तम्भ का संबंध नीति निर्माण से है। जबकि कार्यकारी विभाग(निदेशालय) का दायित्व उसके क्रियान्वयन से होता है।

विभागाध्यक्ष के बाद मण्डलायुक्त होता है। वर्तमान में राज्य में दो मण्डल गढवाल एवं कुमायूँ मण्डल है। गढवाल मण्डल में 07 जिले एवं कुमायूँ मण्डल में 06 जिले है। मण्डल के नीचे जिलाधिकारी के नेतृत्व में जिले होते है। राज्य में कुल 13 जिले है।

जिलों के नीचे 110 तहसील व 95 विकासखण्ड है ।

 

विधानमण्डलः-

राज्य में विधि निर्माण के लिए विधानमण्डल के दो अंग है।(1) राज्यपाल(2) विधानसभा

राज्यपाल- विधानमण्डल में सबसे ऊपर राज्यपाल का स्थान है। इसकी मंजूरी के बिना कोई भी कानून राज्य में लागू नही किया जा सकता। राज्यपाल विधानसभा के अधिवेशन को आहूत करता, सत्रावसान करता तथा विघटन करता है। वह सदन का सत्र शुरू होने पर सदन में अभिभाषण करता, बजट रखवाता, विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजेने के लिए आरक्षित रखता तथा विशेष परिस्थितियों में जब सदन सत्र में न हो अध्यादेश जारी करता है। ये सभी राज्यपाल के विधायी कार्य है।

विधानसभाः- विधानसभा का गठन संविधान के अनुच्छेद 170 के अनुसार राज्य के 18 वर्ष या उससे  अधिक आयु के मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रीति से सदस्य (जोकि 25 वर्ष की आयु पूर्ण होने पर) चुने जाते है। अनुच्छेद 170 के तहत किसी राज्य की विधानसभा में अधिक से अधिक 500 और न्यूनतम 60 सदस्य हो सकते है। विधानसभा का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है। राष्ट्रीय आपातकाल के उद्घोषणा के प्रवर्तन की स्थिति में विधानसभा के कार्यकाल को 01 वर्ष के लिए बढ़ाया जा सकता है। लेकिन इस प्रकार बढायी गयी अवधि आपातकाल के समाप्त होने के 6 महीने से अधिक समय के बाद जारी नही रह सकती।

विधानसभा का विघटन उसके 5 वर्ष पूरा होने के पूर्व में भी मंत्रिपरिषद की सलाह पर राज्यपाल द्वारा किया जा सकता है। विधानसीाा के बैठक में गणपूर्ति के लिए कम से कम 1/10 सदस्यों की उपस्थिति अनिवार्य है। विधानसभा का सत्र वर्ष में कम से कम दो बार आहूत होना चाहिए इन दो सत्रों के बीच की अवधि 6 माह से अधिक का अंतराल नही होना चाहिए। सविंधान के अनुच्छेद 178 के अनुसार विधानसभा के सदस्यों आपसे में एक सदस्य को विधानमण्डल का अध्यक्ष तथा एक अन्य सदस्यों को उपाध्यक्ष चुनते है। विधानसभा भंग होने पर अध्यक्ष अगली नवनिर्वाचित विधानसभा के प्रथम अधिवेशन होने तक अपने पद पर बना रहता है। विधानसभा अध्यक्ष 5 वर्ष के लिए निर्वाचित होता है। किन्तु वह पूर्व में भी उपाध्यक्ष को अपना इस्तीफा दे सकता है।

राज्य गठन से पूर्व राज्य में विधानसभा के 22 सदस्य तथा 9 विधान परिषद के सीटे थी। गठनोपरान्त 05 नवम्बर 2001 को सम्पन्न परिसीमन के बाद विधानसभा सीटों की संख्या बढकर 70 हो  गयी। जिसमें 15 सीटे आरक्षित है। जिसमें से 13 सीटे अनुसूचित जाति एवं 2 सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है। अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटे है चकराता (देहरादून) एवं नानकमत्ता (उधमसिंह नगर)।

अंतरिम विधानसभाः- उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक 2000 में उत्तराखण्ड के अंतरिम विधानसभा हेतु 31( उस समय में राज्य में विधानसभा के 22 सदस्य तथा 9 विधान परिषद को मिलाकर) विधायकों की व्यवस्था की गयी थी। तथा अंतरिम विधानसभा का गठन 30 विधायकों से किया गया। उत्तर प्रदेश में बहुमत होने के कारण 9 नवम्बर, 2000 को उसी के नेतृत्व में 30 विधानसभा सीटो की अंतरिम सरकार का गठन हुआ। अंतरिम सरकार में मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी सहित 9 कैबिनेट मंत्री तथा 4 राज्यमंत्री थे। अंतरिम विधानसभा के कुल 30 विधायकों में 23 भारतीय जनता पार्टी 3 समाजवादी पार्टी 2 बहुजन समाजवादी पार्टी 2 कांग्रेस के थे। नित्यानन्द स्वामी के त्यागपत्र देने के बाद 29 अक्टूबर, 2001 को भगत सिंह कोश्यारी को अंतरिम सरकार में दूसरा मुख्यमंत्री बना दिया गया। जिसमें 9 कैबिनेट एवं 3 राज्यमंत्री थे। अंतरिम सरकार में विधानसभा के अध्यक्ष प्रकाश पन्त थे।

प्रथम निर्वाचित विधानसभाः- राज्य में प्रथम विधानसभा चुनाव 14 फरवरी 2002 को हुआ। जिसमें कांग्रेस को 36 भाजपा को 19 बसपा को 7 उक्रांद को 4 राकांपा को 1 तथा अन्य को 3 सीटे मिली। राज्य के प्रथम निर्वाचित सरकार के पहले मुख्यमंत्री के रूप में नारायण दत्त तिवारी ने शपथ ली। जो रामनगर विधानसभा सीट से विधायक चुने गये थे। यशपाल आर्य को विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया।

दूसरी निर्वाचित विधानसभा- राज्य में दूसरी निर्वाचित विधानसभा 21 फरवरी 2007 को चुनी गयी थी। जिसमें भाजपा को 36 कांग्रेस को 20 बसपा को 8 उक्रांद को 3 व अन्य निर्दलीय को 3 सीट मिली। इस विधानसभा में 4 महिलाये निर्वाचित हुई। भुवन चन्द्र खण्डूडी राज्य के दूसरे निर्वाचित मुख्यमंत्री बने। विधानसभा अध्यक्ष हरबंश कफूर थे। खण्डूडी के इस्तीफा देने के बाद स्वास्थ्य मंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंकने मुख्यमंत्री की शपथ ली। 02 वर्ष 02 माह 18 दिन मुख्यमंत्री के पद रहने के बाद निशंक द्वारा इस्तीफा देने के बाद भुवन चन्द्र खण्डूडी मुख्यमंत्री बने।

तृतीय निर्वाचित विधानसभा- 30 जनवरी, 2012 को सम्पन्न हुए विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा को 31 काग्रेस 32 बसपा को 3 उक्रांद को 1 व निर्दलियों को 3 सीटे मिली। जिसमें 5 महिलायें निर्वाचित हुई। विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री एवं गोविन्द सिंह कुंजवाल को विधानसभा का अध्यक्ष चुना गया। कांग्रेस में आन्तरिक कर्लह के कारण विजय बहुगुणा को इस्तीफा देना पडा तथा हरीश रावत ने मुख्यमंत्री की शपथ ली।

चौथी निर्वाचित विधानसभा- 15 फरवरी, 2017 को चौथी विधानसभा निर्वाचित हुई। जिसका कार्यकाल फरवरी, 2022 तक निर्धारित है। जिसमें भाजपा को 57 कांग्रेस को 11 एवं निर्दलीय को 2 सीटे मिली। वर्तमान में 6 महिलायें विधानसभा सदस्य है। एंग्लो इंडियन समुदाय से श्री जाॅर्ज आइवान ग्रेगरीमैन नामित है। नेता प्रतिपक्ष डाॅ इन्दिरा हद्येश नियुक्त है।

न्यायपालिकाः- न्यायपालिका शासन का तीसरा महत्वपूर्ण अंग है। इसका मुख्य कार्य विधि की व्याख्या करना है। यह विधायिका एवं कार्यपालिका पर वहीं तक नियंत्रण स्थापित करती है, जहाॅ तक वे निकाय विधान और संविधान से परे जाकर कार्य करने लगते है। न्यायपालिका को नागरिकों के अधिकारों का रक्षक एवं संविधान का सजग प्रहरी कहा जाता है। प्रदेश में न्याय प्रशासन के शीर्ष पर एक उच्च न्यायालय है। उच्च न्यायालय के शीर्ष पर एक उच्च न्यायालय है। उच्च न्यायालय के नियंत्रण में अनके अधीनस्थ न्यायालय है।

उच्च न्यायालयः संविधान के अनुच्छेद 214 के तहत प्रत्येक राज्य के लिए एक-एक उच्च न्यायालय का प्रावधान किया गया है। नैनीताल में उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय की स्थापना 09 नवम्बर, 2000 को देश के 20 वें न्यायालय के रूप में की गयी। वर्तमान में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रवि विजय कुमार मलीमथ है। वर्तमान में कुल 11 न्यायाधीश (09 स्थायी एवं 2 अतिरिक्त) नियुक्त है। अनुच्छेद 127 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय को राज्य के अन्य न्यायालयों और न्यायधिकारियों के अधीक्षण का पूरा अधिकार है। राज्य उच्च न्यायालय के प्रथम मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति अशोक अभयंकर देसाई तथा प्रथम रजिस्ट्रार जी0सी0एम0 रावत थे।

लोकायुक्तः-लोकयुक्त का कार्यालय देहरादून में स्थित है। उत्तराखंड में पहली बार लोकायुक्त अधिनियम वर्ष 2011 में तत्कालीन सीएम भुवन चंद्र खंडूरी के कार्यकाल में पेश किया गया था। उस वक्त इस अधिनियम को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की मंजूरी भी मिल गई थीलेकिन बाद में सीएम बने विजय बहुगुणा ने इसे निरस्त कर दिया गया था। साल 2017 में त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने इसे दोबारा विधानसभा में पेश किया थाजिसे बाद में प्रवर समिति को भेज दिया गया।

स्थानीय स्वायत्त शासन

पंचायतीराज प्रणालीः- राज्य गठन के बाद 2002-03 में प्रथम निर्वाचित सरकार ने पूर्व व्यवस्था (उ0प्र0 पंचायत विधि विधेयक) को कुछ आंशिक संशोधन के साथ यथावत् रखने का निर्णय लिया।

राज्य सरकार ने पंचायती राज संस्थाओं के सुदृढ़ीकरण एवं विकास कार्यो के प्रभावी अनुश्रवण हेतु पंचायती राज निदेशालय एवं जिला पंचायत अनुश्रवण प्रकोष्ठ का गठन किया। मार्च 2008 में पारित पंचायत (संशोधन) अधिनियम के अनुसार खण्डूडी सरकार द्वारा पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण 33 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया गया।

वर्तमान में राज्य में पंचायतों की त्रिस्तरीय व्यवस्था लागू है।

जिला पंचायत- यह पंचायती राज व्यवस्था का सबसे शीर्ष निकाय है। इसके सदस्यों का चुनाव 18 या उससे अधिक आयु की जनता के द्वारा निर्वाचित होता है। निर्वाचित सदस्यों द्वारा जिला पंचायत अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष का चुनाव होता है।

जिले के सभी प्रमुख, लोकसभा सदस्य, राज्य सभा सदस्य, राज्य विधान सभा सदस्य जिला पंचायत के पदेन सदस्य होते है, वे जिला पंचायत की कार्यवाहियों में भाग ले सकते व मत दे सकते है। केवल अविश्वास प्रस्ताव के समय पर मत नही दे सकते है।

इसका सचिव मुख्य विकास अधिकारी एवं जिला पंचायत राज अधिकारी होता है।

जिला पंचायत अपने सदस्यों में से 6 प्रकार की समितियां बनाती है।

1.   जल प्रबन्धन एवं जैव विविधता प्रबन्धन समिति

2.   शिक्षा समिति

3.   नियोजन एवं विकास समिति

4.   स्वास्थ्य एवं कल्याण समिति

5.   प्रशासनिक समिति

6.   निर्माण कार्य समिति

राज्य में 13 जिला पंचायत समिति है।

क्षेत्र पंचायत-त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था में क्षेत्र पंचायत मध्य स्तरीय निगमित निकाय है। इसका सचिव वीडीओ होता है। इसके सदस्यों का चुनाव 18 या उससे अधिक आयु की जनता के द्वारा निर्वाचित होता है। निर्वाचित सदस्यों द्वारा क्षेत्र पंचायत प्रमुख(अध्यक्ष), उप प्रमुख(उपाध्यक्ष) एवं एक कनिष्ठ उप प्रमुख का चुनाव होता है। क्षेत्र पंचायत के निर्वाचित सदस्यों की संख्या 20 से कम व 40 से अधिक नही हो सकती।

उस क्षेत्र पंचायत के अन्तर्गत आपने वाले ग्राम प्रधान, लोकसभा सदस्य, राज्य सभा सदस्य, राज्य विधान सभा सदस्य क्षेत्र पंचायत के पदेन सदस्य होते है, वे क्षेत्र पंचायत की कार्यवाहियों में भाग ले सकते व मत दे सकते है। केवल अविश्वास प्रस्ताव के समय पर मत नही दे सकते है। उस क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले जिला पंचायत सदस्य भी क्षेत्र पंचायत की बैठक में विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में भाग ले सकते है। किन्तु मत नही दे सकते है। क्षेत्र पंचायत कार्यो के क्रियान्वयन हेतु अपने सदस्यों से गठित निम्न 6 प्रकार के समितियों के माध्यम से करती है।

1.   जल प्रबन्धन एवं जैव विविधता प्रबन्धन समिति

2.   शिक्षा समिति

3.   नियोजन एवं विकास समिति

4.  स्वास्थ्य एवं कल्याण समिति

5.  प्रशासनिक समिति

6.  निर्माण कार्य समिति


राज्य में 95 क्षेत्र पंचायत समितियां है।

ग्राम पंचायतः- त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था के सबसे निचले स्तर पर ग्राम पंचायत होती है। ग्राम पंचायत के गठन हेतु पर्वतीय क्षेत्रों में कम से कम 500 व मैदानी क्षेत्रों में कम से कम 1000 व अधिकतम 10 हजार की आबादी होनी चाहिए। किसी भी ग्राम पंचायत में सदस्यों की संख्या 5 से कम व 15 से अधिक नहीं हो सकती है। ग्राम पंचायत सदस्यों एवं पंचायत अध्यक्ष (प्रधान) का चुनाव ग्राम सभा के 18 वर्ष या इससे अधिक आयु के सदस्यों द्वारा की जाती है। एक ग्राम सभा की एक ही ग्राम पंचायत होती है। ग्राम सभा की प्रत्येक वर्ष दो आम बैठक होती है, जिसकी अध्यक्षता ग्राम प्रधान करता है। इस स्तर पर भी 6 समितियां बनाई जाती है। जिनकी सभापति महिला ही होती है । 2002-03 में प्रथम चरण में राज्य सरकार ने 29 विषयों में से केवल 14 विषयों से संबंधित को ग्राम पंचायतों में हस्तान्तरित करने का निर्णय लिया था। 

राज्य में 7950 ग्राम पंचायत समितियां है।

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