उत्तराखंड की अनुसूचित जनजाति
अनुसूचित जनजाति शब्द सबसे पहले भारत के संविधान में इस्तेमाल हुआ था। अनुच्छेद 366 (25) में अनुसूचित जनजातियों को “ऐसी जनजातियां या जनजाति समुदाय या इनमें सम्मिलित जनजाति समुदाय के भाग या समूहों को संविधान के प्रयोजनों हेतु अनुच्छेद 342 के अधीन अनुसूचित जनजातियां माना गया है” पारिभाषित किया गया है। अनुच्छेद 342, जिसे नीचे पुन: बताया गया है अनुसूचित जनजातियों को सुनिश्चित करने के लिए अपनाई जाने वाली प्रक्रियाएं बताई गई हैं।
उत्तराखंड में मुख्य रूप से जौनसारी, थारू, भोटिया, बोक्सा एवं राजी आदि जन जातियां निवास करती है। जिन्हें 1967 में ही अनुसूचित जनजाति घोषित किया गया था। इन 5 जनजातियों के अलावा राज्य में कुछ अन्य जनजातियां भी निवास करती है। लेकिन उनकी आबादी बहुत कम है।
जौनसारीः-
जौनसारी राज्य का दूसरा बड़ा एवं गढ़वाल क्षेत्र का सबसे बडा जनजातीय समुदाय है। इस क्षेत्र के अन्तर्गत देहरादून का चकराता, कालसी, त्यूनी, लाखामण्डल आदि क्षेत्र, टिहरी का जौनपुर क्षेत्र तथा उत्तरकाशी का परग नेकाना क्षेत्र आता है। देहरादून का कालसी, चकराता व त्यूनी तहसील को जौनसार-बावर क्षेत्र कहा जाता है।
भाषाः- जौनसार बावर क्षेत्र की मुख्य भाषा जौनसारी है। बावर के कुछ क्षेत्र में बावरी भाषा, देवधार में देवधारी व हिमाचली भाषा बोली जाती है।
प्रजाति एवं जातिः- ये मंगोल एवं डोमों प्रजातियों के मिश्रित लक्षण वाले होते है। यह जनजाति खमास, कारीगर और हरिजन खसास नाम तीन वर्गो में विभाजित है।
वेशभूषा- पुरूष सर्दियों में ऊनी कोट व ऊनी पाजामा (झंगोली) तथा ऊनी टोपी (डिगुबा) पहनते है। जबकि स्त्रियां ऊनी कुर्ती व घाघरा व ढाॅट (एक बडा रूमाल) पहनती है। गर्मियों में पुरूष चूडीधार पायजामा, बंद गले का कोट व सूती टोपी तथा स्त्रियों सूती घाघरा व कुर्ती कमीज (झगा) पहनती है। और कुर्ते के बाहर चोली (चोल्टी) पहनती है।
आवास- जौनसारी लोग अपना घर लकडी और पत्थर से बनाते है।
सामाजिक संरचना- इनमें पितृसत्तात्मक प्रकार की संयुक्त परिवार प्रथा पायी जाती है। परिवार का मुखिया सबसे बडा पुरूष सदस्य होता है।
पहले इनमें बहुपति विवाह का प्रचलन था जो अब लुप्त हो चुकी है। अब इनमें ‘बेवीकी‘, ‘बोईदोदीकी’ और बाजदिया आदिह प्रकार के विवाह प्रचलित है।
धर्मः- जौनसारी हिन्दू धर्म को मानते है तथा वे महासू, वाशिक, बोठा, पवासी व चोलदा आदि देवी देवताओं को अपना कुलदेव एवं सरंक्षक मानते है। ‘महासू’ (महाशिव) इनके सर्वमान्य एवं महत्वपूर्ण देवता है। जो महासू देवता का मन्दिर हनौल में स्थित है। जो प्रमुख तीर्थस्थल है।
जौनसारी अपने को पांडवों का वंशज बताते है। इनके प्रमुख देवता पांचों पांडव तथा पंचमाता (कुन्ती) इनकी देवी है।
त्यौहारः-नुणाई त्यौहार सावन के महीने में, जहां भेड पालन अधिक होता है, वें इस त्यौहार को मानते है। जागडा महासू देवता का त्यौहार है जो भादों के महीने में मनया जाता है। उस दिन महासू देवता को मंदिर से ले जाकर टाॅस नदी में स्नान कराया जाता है। माघ त्यौहार 11 या 12 जनवरी से प्रारम्भ होकर पूरे माघ भर चलता है। दीपावली इनका विशेष पर्व है, जो राष्ट्रीय दीपावली के ठीक एक माह बाद मनाते है। वीर केसरी मेला 3 मई को ‘चैलीथात’’ में अमर शहीद केसरी चन्द के बलिदान दिवस के रूप में मनाया जाता है।
आर्थिकीः- कृषि एवं पशुपालन इनका मुख्य व्यवसाय है। खसास (ब्राहमण एवं राजपूत) जौनसारी काफी सम्पन्न होते है।
राजनीतिक ढांचाः- प्रत्येक गांव में गांव पंचायत की जगह ‘खुमरी’ नामक समिति होती थी। गांव के प्रत्येक परिवार का एक सदस्य खुमारी का सदस्य होता था। खुमरी के मुखिया को ‘ग्राम सयाणा’ कहा जाता था।
खुमरी से ऊपर खत स्तर पर प्रत्येक खत में एक-एक खत खुमरी नामक समिति हुआ करती थी। इसका मुखिया खत सयाणा कहलाता था। खत खुमरी क्षरा दो या अधिक गांवो के बीच के मामलों, मालगुजारी या दीवानी मामलों का निपटारा किया जाता था।
जौनसार क्षेत्र के प्रसिद्ध व्यक्तिः-
वीर केसरीचन्दः- इनका जन्म 01 नवम्बर, 1920 को चकराता के पास क्यावा गांव में हुआ था। ये बोस की आजान्द हिन्द फौज में भर्ती हो गये थे। इन्होनें 03 मई 1945 को फांसी की सजा दी गयी। इनके बलिदान दिवस पर 03 मई को चोलीथात में मेला लगता है।
पं शिवरामः- ये जौनसार के प्रथम कबि है। इनकी प्रसिद्ध रचना ‘वीर केसरी’ जौनसार बावर में बहुत प्रसिद्ध है।
भाव सिंह चौहान- प्रथम जौनसारी व्यक्ति इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की और खेल जगत में अन्र्तराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की। इनको फादर ऑफ जौनसार बाबर सम्मान से सम्मानित होने वाले जौनसार क्षेत्र के प्रथम व्यक्ति है।
गुलाब सिंहः-इनका जनम बाबर क्षेत्र के वृनाड ग्राम में हुआ था। श्री गुलाब सिंह उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह। इन्हें जौनसार में राजनीतिक जागरूकता का जनक माना जाता है। इस क्षेत्र में मंत्री पद पाने वाले प्रथम व्यक्ति थे।
केदार सिंहः- प्रथम समाजसेवी इनको कहा जाता है।
नन्द लाल भारतीः- जौनसार के संगीत जनक नंद लाल भारती जौनसार रत्न से सम्मानित है।
रतन सिंह जौनसारीः- इस क्षेत्र के आधुनिक कवि है।
थारू
यह मुख्य रूप से खटीमा, किच्छा, नानकमत्ता और सितारगंज में निवास करते है। यह समुदाय जनसंख्या की दृष्टि से उत्तराखण्ड व कुमायूं क्षेत्र का सबसे बडा जनजातीय समुदाय है।
उत्पत्तिः- थारूओं को किरात वंश का माना जाता है।
शारीरिक गठनः- कद छोटा, पीत वर्ण, चैडी मुखाकृति तथा समतल नासिका वाले जो मंगोज प्रजाति के समान होते है।
भाषाः- अवधी, मिश्रित पहाडी, नेपाली, भावरी
वेशभूषाः- धोती, लंगोटी, अगा, कुर्ता, टोपी व साफा व स्त्रियां रंगीन लहंगा, काली ओढनी, चोली और बूटेदार कुर्ता पहनती है तथा शरीर पर गुदना गुदवाती है।
आवासः- लकडी, पतो और नरकुल का प्रयोग करते है घर बनाने में
भोजनः- चावल और मछली मुख्य भोजन है।
सामाजिक स्वरूपः- कई गोत्रों या जातियों या कुरियों में बंटे होते है। बड़वायक, बट्टा, रावत, वृत्तियां, महतो व डहैत इनके प्रमुख गोत्र या घराने है।
बदला विवाह अर्थात बहनों के आदान-प्रदान का प्रचलन था लेकिन अब ‘तीन टिकठी’ व अन्य प्रथाएं प्रचलित है। दोनों पक्षों की ओर से विवाह तय कर लिये जो को ‘पक्की पोढ़ी’ कहते है। विवाह की सगाई रस्म को ‘अपना पराया’ कहा जाता है एवं विवाह की तिथि निश्चित होने को ‘बात कट्टी’ कहा जाता है। विवाह के बाद जब लडकी स्थायी रूप से पति के घर जाती है तो उस रस्म को ‘चाला’ कहा जाता है। इनके विधवा विवाह की भी प्रथा है। इसमें लठभरवा भोज कराया जाता है।
इनमें संयुक्त एवं एकाकी परिवार की प्रथा प्रचलित है। इस समाज में पितृवंशीय एवं पितृस्थानीय परिवारिक परम्परा पायी जाती है।
धर्मः- यह हिन्दू धर्म का मानते है।
त्यौहारः- दशहरा, होली, दीपावली, माघ की खिचडी, प्रमुख त्यौहार है। बजहर नाम त्यौहार ज्येष्ठ या बैशाख में मनाया जाता है। दीवाली को ये शोक पर्व के रूप में मनाते है। होली आठ दिनों तक मनायी जाती है। जिसमें खिचडी नृत्य किया जाता है।
राजनैतिक व्यवस्थाः-इन की अपनी पंचायतें तथा ग्रामीण अदालते होती है जिसमें दण्डस्वरूप शारीरिक व आर्थिक दण्ड दिया जाता है।
अर्थव्यवस्थाः- कृषि व पशुपालन मुख्य व्यवसाय है। ये मुख्य रूप से धान की खेती करते है।
भोटियाः-
यह मुख्य रूप से पिथौरागढ, चमोली, अल्मोडा, उत्तरकाशी में पायी जाती है। किरात वंशीय भोटिया एक अर्द्धघुमंतू जनजाति है। ये अपने को खस राजपूत बताते है। इनको मारछा, तोल्छा, जोहारी, शौका, दरमिया, चैंदासी, व्यासी, जाड, जेठरा व छापडा की उपजाति उक्त जनपदों में निवासरत है।
मुख्यतः गढ़वाल के चमोली में ‘मारच्छा’ व ‘तोलच्छा’ तथा उत्तरकाशी में ‘जाड’ भोटिया एवं कुमायूं के पिथौरागढ़ में ‘जोहारी एवं ‘शौका’ भोटिया रहते है।
भाषाः-भोटिया तिब्बती वर्मी भाषा परिवार से संबंधित 6 बोलियां बोलते है।
शारीरिक संरचनाः- भोटिया जनजाति के लोग तिब्बती एवं मंगोलियन जाति के मिश्रण है। इनका कद छोटा, सिर बडा, चेहरा गोल, आंख छोटी, नाक चपटी एवं बाल का रंग भूरा होता है।
आवासः- भोटिया जनजाति के लोग जहाॅ चारागाअ की सुविधा हो वह अपना आवास (मैत) बनाकर रहते है। शीतकाल के आरम्भ में ये लोग अपने परिवार के साथ ‘गुण्डा‘ या ‘मुनसा’ (शीतकालीन आवास) में आ जाते है।
परिधानः- पुरूषों का परिधान गैजू या खगचसी, चंगुठी या चुकल व बांखे है। जबकि स्त्रिया च्युमाला, च्युं, च्यूंकला, च्युब्ती, ब्यूज्य आदि धारण करती है।
भोजनः- चावल या मंडुवा का भात (छाकू), सब्जी, दाल, रोटी, मांस मुख्य भोजन है।
च्यकती या छंग (शराब) इनके पेय है।
सामाजिक व्यवस्थाः- इनमें पितृृसत्तात्मक एवं पितृस्थानीय प्रकार का परिवार (मवासा) देखने को मिलता है। संपति का बॅंटवारा पिता के जीवित रहते हो जाता है। इनमें एक पत्नी प्रथा प्रचलित है तथा विवाह संबंध माता पिता द्वारा तय किये जाते है। कुछ भोटिया समाज में विवाह (दामी) की दो प्रथायें (तत्सत व दामोला) देखने को मिलता है। इनमें भावज-देवर विवाह, गन्धर्व विवाह व पुनर्विवाह भी मिलता है। इस समाज में कुछ मात्रा में वधु-शुल्क प्रथा का भी प्रचलन है। विवाह के अवसर पर रूमाल लेकर ‘पौणा नृत्य‘‘ होता है।
धर्मः- यह मुख्यतः हिन्दू धर्म को मानते है। हांलाकि कुछ स्थानों पर बौद्व धर्म का मानते है।
भोटिया समाज में मृतक की आत्मा की शांति के लिए ग्वन संस्कार किया जाता है। इनमें प्रत्येक 12 वें वर्ष कंडाली नाम उत्सव मनाया जाता है।
अर्थव्यवस्थाः- कृषि एवं पशुपालन एवं ऊनी दस्तकारी मुख्य व्यवसाय है। ग्रीष्मकाल मेें सीढ़ीनुमा खेती करते है। यहां पर झूम प्रणाली की तरह ‘काटिल विधि’ से वनों को आग से साफ कर खेती योग्य भूमि तैयार की जाती हैै।
मनोरंजनः- तुबेरा (रसिया जैसा गीत), बाज्यू, तिमली(सामाजिक विषय पर गीत) आदि इनके लोकगीत है। ये अपना विशेष बाद्ययंत्र ‘हुडके’ को बजाकर मनोरंजन करते है।
बोक्साः-
यह मुख्य रूप से तराई भावर क्षेत्र में स्थित उधमसिंह नगर के बाजपुर, गदरपुर एवं काशीपुर, नैनीताल के रामनगर, पौड़ी गढ़वाल के दुगड्डा तथा देहरादून के विकासनगर, डोईवाला एवं सहसपुर में निवास करते है। नैनीताल व उधमसिंह नगर जिलों के बोक्सा बहुल क्षेत्र को बुकसाड़ कहा जाता है। बोक्सा अपने को पंवार राजपूत बताते है। कुछ विद्वान इन्हें मराठों द्वारा भगाये गये लोगों का वंशज मानते है।
बोक्सा सर्वप्रथम बनबसा (चम्पावत) में 16 वीं शताब्दी में आकार बसे थे।
शारीरिक संरचनाः- इनका कद और आंखें छोटी, चेहरा चैडा, होंठ पतले, पलकें भारी एवं नाक चपटी होती है। स्त्रियों में गोल चेहरा, गेहंुआ रंग तथा मंगेाल नाक नक्श स्पष्ट रूप से दिखायी पडता है।
भाषाः- इनकी कोई विशिष्ट बोली नही है जो जिस क्षेत्र में निवासरत है वे वही की भाषा बोलते है। जैसा भावरी, कुमयाँ, रच भैंसी आदि।
परिधानः- इनमें ग्रामीण में रहने वाले पुरूष धोती, कुर्ता, सदरी और सिर पर पगडी धारण करते है जबकि नगरों में रहने वाले आधुनिक वस्त्र धारण करते है। स्त्रियां ढीला लहंगा और चोली के साथ ओढनी पहनने के साथ आधुनिक वस्त्र भी पहनती है।
सामाजिक व्यवस्थाः- इनमें ज्यादातर संयुक्त और विस्तृत परिवार पाये जाते है। परिवार पितृवंशीय और पितृसत्तात्मक होता है। सामान्य रूप से ये 5 गोत्रों या उपजातियों यदुवंशीय, पंवार, राजवंशी, परतजा व तनवार में विभक्त है।
धर्मः- बोक्सा हिन्दू धर्म के काफी निकट है। ये हिन्दू की भाॅति देवी देवीताओं का पूजा करते है। काशीपुर की चैमुडा देवी इस क्षेत्र के बोक्साओं की सबसे बड़ी देवी मानी जाती है। ग्राम देवी व देवता की पूजा के स्थान को ‘थान’ कहा जाता है।
त्यौहारः-चैती, नौवी, होली, दीपावली, नवरात्रि आदि इनके प्रमुख त्यौहार है। चैती इनका मुख्य त्यौहार व मेला है।
अर्थव्यवस्थाः- कृषि, पशुपालन एवं दस्तकारी इनके आर्थिकी जीवन का मुख्य व्यवसाय है।
भोजनः- मछली और चावल इनका मुख्य भोजन है। रोटी, दूध, दाल, सब्जी, मक्का का भी सेवन करते है।
राजनीतिक व्यवस्थाः- बोक्सा समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार है। कई परिवार से मिलकर एक गांव(मंझरा) का निर्माण होता है। छोटे-छोटे निपटारे के लिए एक समिति होती है। जिसका एक मुखिया या प्रधान होता है। कहीं-कहीं 5 सदस्यीय एक विरादरी पंचायत होती है। जो न्याय एवं कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए उत्तरदायी है। इस पंचायत में एक मुंसिफ, एक दारोगा और दो सिपाही होते है।
नैनीताल एवं उधमसिंह नगर जिलों में बोक्सा परिषद की स्थापना की गयी है।
राजी:-
राजी मुख्यतः पिथौरागढ़ जनपद के धारचूला, कनालीछीना एवं डीडीहाट विकासखण्डों, चम्पावत और नैनीताल में कुछ संख्या में निवास करते है। इनको बनरौत, वनराउत, बनरावत, जंगल के राजा आदि के नामों से संबोधित किया जाता है। राजी नाम सबसे अधिक प्रचलित है। विद्धानों का मत है कि किरात जाति के वंशज है।
शारीरिक संरचनाः- कद छोटा चपटा मुंह, मजबूत काठी तथा होंठ बाहर होता है। बाल घुंघराले व रंग काला होता है।
भाषाः- इनकी भाषा तिब्बती और संस्कृत शब्दों की अधिकता पायी जाती है। ‘मुंडा भाषा’ मुख्यतः बोली जाती है।
परिधानः- पुरूष धोती, अंगरखा व पगडी धारण करते है। ये चोटी भी रखते है। स्त्रियां लहंगा, चोली, ओढनी धारण करती है। इनमें गोदना गुदवाने का प्रचलन है।
आवासः- पहलें ये अधिकांश वनों में निवास करते थे, लेकिन अब ये झोपडियां में निवास करते है। अपने आवास को ये ‘रौत्यूडा’’ कहते है।
भोजनः- मंडुवा, मक्का, दाल, सब्जी, सोयबीन, मछली, मांस इनके मुख्य भोज्य प्रदार्थ है।
अर्थव्यवस्थाः- कृषि, दस्तकारी एवं मजदूरी इनकी आर्थिकी का साधन है। ये काष्ठ कला में निपुण होते है। इनके कुछ परिवार अभी भी घुमकक्डी अवस्था में जीवनयापन कर रहे है। लेकिन ज्यादात्तर राजी जनजाति के लोग झूमाविधि से थोडी बहुत कृषि करने लगे है। वनों की कटाई पर रोक लगने के कारण अब राजी जनजाति के लोग मजदूरी भी करने लगे है।
सामाजिक व्यवस्थाः- विवाह के पूर्व ‘सांगजांगी’ व ‘पिंठा संस्कार’ सम्पन्न होता है। बच्चों का विवाह बाल्यावस्था में कर दिया जाता है। पहले इनमें पलायन विवाह का भी प्रचलन था। विवाह-विच्छेद व पुनर्विवाह के लिए पुरूष एवं स्त्री में समान अधिकार है।
धर्मः- ये हिन्दू धर्म को मानते है। ये बाघनाथ, मलैनाथ, गणनाथ, सैम, मलिकार्जुन, छुरमल, नन्दादेवी आदि देवी देवीताओं की पूजा करते है।
त्यौहारः- कारक(कर्क) और मकारा (मकर) की संक्रान्ति इनके दो प्रमुख त्यौहार है।
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