राज्यपाल

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 153 में यह प्रावधान है कि भारत के प्रत्येक राज्य में एक राज्यपाल होगा किंतु 1956 में किए गए संशोधन के अनुसार एक ही व्यक्ति को दो या अधिक राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया जा सकता है। संविधान के अनुसार, राज्यपाल राज्य स्तर पर संवैधानिक प्रमुख होता है। कार्यपालिका प्रमुख होने के नाते वह दोहरी भूमिका निभाता है-

1.  राज्य के प्रमुख के रूप में, तथा;

2.  केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में, जो केंद्र एवं राज्य के बीच कड़ी के रूप में काम करता है।

उपराज्यपाल-दिल्ली, पुदुचेरी, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, लद्दाख, जम्मू कश्मीर

प्रशासक-दादर एवं नागर हवेली, लक्षद्वीप, दमन तथा दीव।

योग्यताएं-अनुच्छेद 157 और 158 के अनुसार राज्यपाल पद के लिए योग्यता:-

  1. भारत का नागरिक हो
  2. उसने 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो
  3. संसद अथवा राज्य के विधानमंडल के किसी भी सदन का सदस्य न हो,
  4.  किसी भी लाभ के पद पर न हो।
  5. वह राज्य विधान सभा का सदस्य चुने जाने योग्य हो। 

कार्यकाल

राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा पाँच वर्षो की अवधि के लिए की जाती है, परन्तु यह राष्ट्रपति के प्रसाद-पर्यन्त पद धारण करता है। 

वेतन और भत्ते

राज्यपाल के वेतन और भत्ते राज्य की संचित निधि में से दिए जाते हैं, जिस पर राज्य के विधानमंडल को मतदान का अधिकार नहीं होता है। 01 जनवरी, 2016 से राज्यपाल का वेतन 3.5 लाख रुपए कर दिया गया है। यदि दो या दो से अधिक राज्यों का एक ही राज्यपाल हो, तब उसे दोनों राज्यपालो का वेतन उस अनुपात में दिया जायेगा जैसा राष्ट्रपति निर्धारित करें।
1987 में संशोधन द्वारा प्रावधान किया गया कि राज्यपाल की परिलब्धियां एवं भत्ते उसकी पदावधि के दौरान कम नहीं किए जाएंगे [अनुच्छेद 158(3)(4)]। 

न्यायिक सुविधाएं
राज्यपाल को कुछ न्यायिक सुविधाएं प्रदान की गई हैं, जो इस प्रकार हैं-

  • वह अपने पद की शक्तियों के प्रयोग और कर्तव्यों के पालन के संबंध में किसी न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं है;
  •  उसके कार्यकाल में उसके विरुद्ध फौजदारी अभियोग नहीं चलाया जा सकता;  
  • उसके कार्यकाल में उसे बंदी बनाने के लिए न्यायालय द्वारा आदेश जारी नहीं किया जा सकता; 
  •  व्यक्ति रूप में राज्यपाल के विरुद्ध दीवानी अभियोग चलाया जा सकता है, परंतु इस उद्देश्य के लिए उसे दो मास की अग्रिम सूचना दी जानी अनिवार्य है।

राज्यपाल की शक्तियां और कार्य राज्यपाल राज्य में लगभग वे समस्त कार्य करता है जो केंद्र में राष्ट्रपति द्वारा किये जाते हैं किंतु राज्यपाल की कोई राजनयिक या सैन्य संबंधी शक्तियां नहीं हैं जैसी की राष्ट्रपति को प्राप्त हैं। राज्यपाल के अधिकारों और कर्तव्यों को चार भागों में बांटा जा सकता है- कार्यपालिका, विधायिका, वित्त तथा न्यायपालिका संबंधी शक्तियां।

कार्यपालिका संबंधी शक्तियां

  • राज्य के समस्त कार्यपालिका कार्य राज्यपाल के नाम से किये जाते है।
  • राज्यपाल मुख्यमंत्री को तथा मुख्यमंत्री की सलाह से उसकी मंत्रिपरिषद के सदस्यों को नियुक्त करता है तथा उन्हें पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाता है।
  • राज्यपाल राज्य के उच्चाधिकारियों, जैसे महाधिवक्ता, राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों  की नियुक्ति करता है।
  • राज्य के उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में राष्ट्रपति को परामर्श देता हैं।
  • राज्यपाल का अधिकर है कि वह राज्य के प्रशासन के संबंध में मुख्यमंत्री से सूचना प्राप्त करें।
  • राज्यपाल राज्य के विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति होता है तथा उपकुलपतियों को भी नियुक्त करता है।
  • राष्ट्रपति शासन के समय राज्यपाल केन्द्र सरकार के अभिकर्ता के रूप में राज्य का प्रशासन चलाता है।
  • जब राज्य का प्रशासन संवैधानिक तंत्र के अनुसार न चलाया जा रहा हो तो राज्यपाल राष्ट्रपति से राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करता है। 

विधायिका संबंधी शक्तियां

  • राज्यपाल विधान मंडल का अभिन्न अंग है।
  • राज्य विधानसभा के किसी सदस्य पर अयोग्यता का प्रश्न उत्पन्न होता है तो अयोग्यता संबंधी विवाद का निर्धारण राज्यपाल चुनाव आयोग से परामर्श करके करता है। 
  • वह राज्य विधान परिषद की कुल सदस्य संख्या 1/6 भाग सदस्यों को नियुक्त करता है, जिनका संबंध विज्ञान, साहित्य, समाज-सेवा, कला, सहकारी आन्दोलन आदि से रहता है। 
  • राज्यपाल विधान मण्डल का सत्रावहान करता है, उसका सत्रावसान करता है, तथा उसका विघटन करता है, राज्यपाल विधान सभा के अधिवेशन अथवा दोनो सदनों में संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करता है। 
  • जब विधान मण्डल का सत्र नही चल रहा हो और राज्यपाल को ऐसा लगे कि तत्काल कार्यवाही की आवश्यकता है, तो वह अध्यादेश जारी कर सकता है, जिसे वही स्थान प्राप्त है, जो विधान मण्डल द्वारा पारित किसी अधिनियम को है। ऐसे अध्यादेश 6 सप्ताह के भीतर विधान मण्डल द्वारा स्वीकृति नही देता है, तो उस अध्यादेश की वैधता समाप्त हो जाती है। 
  • कुछ विशिष्ट प्रकार के विधेयको को राज्यपाल राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेजता है। 

वित्तीय संबंधी शक्तियां

  • राज्यपाल प्रत्येक वित्तीय वर्ष में वित्त मंत्री को विधान मण्डल के सम्मुख वार्षिक वित्तीय विवरण प्रस्तुत करने के लिए कहता है। 
  • ऐसा कोई विधेयक जो राज्य की संचित निधि से खर्च निकालने की व्यवस्था करता हो उस समय तक विधान मण्डल द्वारा पारित नही किया जा सकता जब तक राज्यपाल इसकी संस्तुति न कर दे। 
  • राज्यपाल की संस्तुति के बिना अनुदान की किसी भी मांग को विधान मण्डल के सम्मुख नही रखा जा सकता। 
  • विधानसभा में धन विधेयक राज्यपाल की पूर्व अनुमति से ही पेश किया जाता है। राज्यपाल धन विधेयक के अतिरिक्त किसी विधेयक को पुनः विचार के लिए राज्य विधानमण्डल के पास भेज सकता है, परन्तु राज्य विधान मण्डल द्वारा इसे दुबारा पारित किये जाने पर वह उस पर अपनी सहमति देने के लिए बाध्य होता है।
  • राज्य का आकस्मिक निधि कोष राज्यपाल के अधिकार में होता है और वह इससे अग्रिम निधि निकाल सकता है, विशेषकर अचानक आने वाले ऐसे खचों के लिए जो राज्य विधानमंडल के अधिकार में होते हैं।

न्यायपालिका संबंधी शक्तियां

राज्यपाल जिला न्यायाधीशों और अन्य न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति, पदोन्नति आदि के मामले में निर्णय लेता है।

अनुच्छेद 161 का प्रावधान है कि राज्यपाल न्यायालय द्वारा दंड दिए गए किसी व्यक्ति की क्षमादान दे सकता है, उसकी सजा कम कर सकता है अथवा सजा को बदल सकता है। ऐसा विशेषतः ऐसे अपराधों के क्षेत्र में होता है, जहां राज्य के कार्यकारी अधिकारों का संबंध हो।

विवेकाधिकार संबंधी शक्तियां

संविधान में राज्यपाल के कुछ विशेष अधिकारों का भी वर्णन है, जिनका उपयोग वह विशेष परिस्थितियों में करता है। राज्यपाल के विवेकाधिकार दो तरह के होते हैं- प्रथम, संविधान में प्रत्यक्ष तौर पर लिखे हुए संवैधानिक विवेकाधिकार। दूसरे, अप्रत्यक्ष विवेकाधिकार, जो कि तात्कालिक राजनीतिक परिस्थितियों से उत्पन्न होते हैं। इन्हें पारिस्थितिकीय विवेकाधिकार कहा जा सकता है। पहले मामले में संविधान में राज्यपाल को अपने विवेक का उपयोग करने की छूट दी गई है, जबकि दूसरे मामले में वह इनका उपयोग राज्य की राजनितिक परिस्थितिय्प्न को देखते हुए करता है।

 राष्ट्रपति एवं राज्यपाल की अध्यादेश निकालने की तुलनात्मक शक्ति

राष्ट्रपति

राज्यपाल

संसद के सत्र में न होने की स्थिति में अध्यादेश निकाला जा सकता है।

राज्य विधानमण्डल के सत्र में न होने की स्थिति में अध्यादेश निकाला जा सकता है।

यदि राष्ट्रपति को यह समाधान हो जाए कि ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो गई हैं कि जिनके निराकरण हेतु संसद के सत्र में आने की प्रतीक्षा नहीं की जा सकती ।

यदि राज्यपाल की यह समाधान हो जाए कि ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो गई हैं, जिनके निराकरण हेतु विधानमण्डल के सत्र में आने की प्रतीक्षा नहीं की जा सकती।

अध्यादेश निकालने एवं उसे वापस लेने की शक्ति का प्रयोग संघीय मंत्रिपरिषद के परामर्श से किया जाता है।

अध्यादेश निकालने एवं उसे वापस लेने की शक्ति का प्रयोग राज्य मंत्रिपरिषद के परामर्श से किया जाता है।

अध्यादेश जारी करने हेतु राष्ट्रपति को किसी अनुदेश की आवश्यकता नहीं होती।

निम्नलिखित तीन दशाओं में राज्यपाल राष्ट्रपति से अनुदेश प्राप्त करने के पश्चात् ही अध्यादेश जारी कर सकता है, यदि- (i) उन उपबंधों को अंतर्विष्ट करने वाले विधेयक को विधानमण्डल में पुरःस्थापित किए जाने हेतु राष्ट्रपति की पूर्वानुमति की आवश्यकता होती है।(ii) राज्यपाल उन उपबंधों की अंतर्विष्ट करने वाले विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित करना आवश्यक समझता है। (iii) उन उपबंधों को अंतर्विष्ट करने वाला विधानमण्डल द्वारा पारित अधिनियम तब तक अविधिमान्य होता है, जब तक राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखे जाने पर उसे राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त न हो गई हो ।

अध्यादेश, संसद द्वारा पारित अधिनियम के समान ही शक्तिशाली होता है।

अध्यादेश विधानमण्डल द्वारा पारित अधिनियम जितना ही शक्तिशाली होता है।

संसद के सत्र में आते ही अध्यादेश की दोनों सदनों के समक्ष विचारार्थ प्रस्तुत किया जाता है।

विधानमण्डल के सत्र में आते ही अध्यादेश को उसके विचारार्थ किया जाएगा (यथास्थिति, विधानसभा अथवा दोनों सदन)।

संसद के सत्र में आने के 6 सप्ताह के पश्चात् अध्यादेश स्वयंमेव समाप्त हो जाता है। यदि संसद के दोनों सदन अध्यादेश का निरानुमोदन करते हुए संकल्प पारित कर देते हैं तो अध्यादेश 6 सप्ताह से पूर्व भी समाप्त हो जाता है। इस हेतु तात्विक तिथि निरानुमोदन के द्वितीय संकल्प की तिथि है।

विधानमण्डल के सत्र में आने के 6 सप्ताह के पश्चात् अध्यादेश स्वयंमेव समाप्त हो जाता है। यदि विधानसभा अध्यादेश का निरानुमोदन करते हुए संकल्प पारित कर देती है तो अध्यादेश 6 सप्ताह से पूर्व भी समाप्त हो जाता है। विधानमण्डल के द्वि-सदनीय होने की स्थिति में निरानुमोदन सम्बन्धी संकल्प विधानसभा पारित करती है और विधान परिषद् केवल उससे सहमति प्रकट करती है। इस हेतु तात्विक तिथि विधानमण्डल का एक सदन होने पर विधानसभा द्वारा निरानुमोदन सम्बन्धी संकल्प पारित करने की तिथि है और यदि दो सदन हैं तो विधान परिषद की सहमति की तिथि है।

 

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