शेरशाह सूरी(1540-1545 ई.)


सूर साम्राज्य का संस्थापक अफगान वंशीय शेरशाह सूरी था। इसके बचपन का नाम फरीद खाँ था। शेरशाह सूरी के पिता हसन खाँ जौनपुर राज्य के अन्तर्गत सासाराम के जमींदार थे। 

बिहार के अफगान शासक सुल्तान मुहम्मद बहार खाँ लोहानी ने शेरशाह सूरी को शेर खाँ की उपाधि दी। 

चौसा साल का युद्ध:-25 जून, 1539 . में बिहार के पास चौसा नामक स्थान पर हुमायूं और शेर खाँ की मजबूत सेना के बीच कड़ा मुकाबला हुआ। इस संघर्ष में हुमायूँ की मुगल सेना को शेरशाह की अफगान सेना से हार का सामना करना पड़ा। इसी युद्ध के बाद शेर खाँ ने शेरशाह की पदवी ग्रहण कर ली।

बिलग्राम का युद्ध:-बिलग्राम का युद्ध मुग़ल बादशाह हुमायूँ और सूर साम्राज्य के संस्थापक शेरशाह सुरी के मध्य हुआ था। यह युद्ध 1540 . में लड़ा गया था। इस युद्ध के परिणामस्वरूप हुमायूँ 17 मई 1540 को शेरशाह सूरी द्वारा पराजित हुआ और इस तरह एक पहला बिहारी मुसलमान दिल्ली की गद्दी पर बैठा। बिलग्राम का युद्ध जीतने के बाद शेरशाह ने हुमायूँ को भारत छोड़ने के लिए विवश कर दिया।

शेरशाह सूरी के सिंहासन पर बैठने एवं अपने साम्राज्य को पूरब में असम की पहाड़ियों से लेकर पश्चिम में कन्नौज तक एवं उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में बंगाल की खाड़ी में झारखंड की पहाड़ियों तक बढ़ा दिया था।

शेरशाह सूरी ने अपने अंतिम समय में कालिंजर के किले पर जीत हासिल तो कर ली, लेकिन 22 मई, 1545 को उसकी मृत्यु हो गयी। 

शेहरशाह सूरी का मकबरा सासाराम में निर्मित्त किया गया। 

शेरशाह ने भूमि की माप के लिए 32 अंकवाला सिकन्दरी गज एवं सन की डंडी का प्रयोग किया।

शेरशाह ने 178 ग्रेन चाँदी का रूपया एवं 380 ग्रेन तांबे के दाम चलवाया।

शेरशाह के समय पैदावार का लगभग 1/3 भाग सरकार लगान के रूप में वसूल करती थी।

कबूलियत एवं पट्टा प्रथा की शुरूआत शेरशाह ने की।

शेरशाह ने पाटिलपुत्र को पटना के नाम से पुनः स्थापित किया। 

शेरशाह ने सासाराम से आगरा को जोड़ने के लिए ग्रेंड ट्रंक रोड का निर्माण किया था।उसका इरादा प्रशासनिक और सैन्य कारणों से अपने विशाल साम्राज्य के दूरस्थ प्रांतों को एक साथ जोड़ना था।यह जल्द ही मुल्तान से पश्चिम की ओर बढ़ा और पूर्व में बंगाल (अब बांग्लादेश) में सोनारगाँव तक फैला हुआ था। मुगलों ने एक समय में पश्चिम की ओर सड़क का विस्तार किया, यह खैबर दर्रे को पार करते हुए अफगानिस्तान में काबुल तक फैल गया।

शेरशाह ने अपने शासनकाल में भारत में डाक विभाग का प्रचलन किया था। उसने उत्तर भारत में चल रही डाक व्यवस्था को दोबारा संगठित किया था, ताकि लोग अपने संदेशों को अपने करीबियों और परिचितों को भेज सकें।


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