सल्तनतकालीन प्रशासनिक व्यवस्था
सल्तनत काल में भारत में एक नई प्रशासनिक व्यवस्था की शुरुआत हुई जो मुख्य रूप से अरबी-फारसी पद्धति पर आधारित थी। सल्तनत काल में प्रशासनिक व्यवस्था पूर्ण रूप से इस्लामिक धर्म पर आधारित थी। प्रशासन में उलेमाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी। ‘खलीफा’ इस्लामिक संसार का पैगम्बर के बाद का सर्वोच्च नेता होता था। प्रत्येक सुल्तान के लिए आवश्यक होता था कि खलीफा उसे मान्यता दे, फिर भी दिल्ली सल्तनत के तुर्क सुल्तानों ने खलीफा को नाममात्र का ही प्रधान माना। इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था जिसने 1229 ई. में बगदाद के खलीफा का ‘नायब’ कहा। अलाउद्दीन खिलजी ने अपने को खलीफा का नायब नहीं माना। मुबारक खिलजी पहला ऐसा सुल्तान था जिसने खिलाफत के मिथक को तोड़कर स्वयं को खलीफा घोषित किया। मुहम्मद तुगलक ने अपने शासन काल के प्रारम्भ में खलीफा को मान्यता नहीं दी, किन्तु शासन के अन्तिम चरण में उसने खलीफा को मान्यता प्रदान कर दी। फिरोजशाह तुगलक ने अपने सिक्कों पर खलीफा का नाम उत्कीर्ण करवाया।
सुल्तान-
सुल्तान की उपाधि तुर्की शासकों द्वारा प्रारम्भ की गयी। महमूद गजनवी पहला शासक था जिसने ‘सुल्तान’ की उपाधि धारण की। दिल्ली सुल्तानों में अधिकांश ने अपने को खलीफा का नायब पुकारा परन्तु कुतुबुद्दान मुबारक खिलजी ने स्वयं को खलीफा घोषित किया। खिज्र खां ने तैमूर के पुत्र शाहरूख का प्रभुत्व स्वीकार किया और रैय्यत-ए-आला की उपाधि धारण की। उसके पुत्र और उत्तराधिकारी मुबारकशाह ने इस प्रथा को समाप्त कर दिया और शाह सुल्तान का उपाधि ग्रहण की। सुल्तान केन्द्रीय प्रशासन का मुखिया होता था। सल्तनत काल म उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम नहीं था, किन्तु सुल्तान को यह अधिकार हाता था कि वह अपने बच्चों में किसी एक को भी अपना उत्तराधिकारी चुन सकत था। सुल्तान द्वारा चुना गया उत्तराधिकारी यदि अयोग्य है तो ऐसी स्थिति में सरदार नये सुल्तान का चुनाव करते थे। कभी-कभी शक्ति के प्रयोग से भी सिंहासन पर अधिकार किया जाता था। दिल्ली सल्तनत में सुल्तान पूर्ण रूप से निरंकुश होता था उसकी सम्पूर्ण शक्ति सैनिक बल पर निर्भर करती थी। सुल्तान सेना का सर्वोच्च सेनापति एवं न्यायालय का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। सुल्तान ‘शरीयत’ के अधीन ही कार्य करता था।
अमीर-
सल्तनत काल में सभी प्रभावशाली पदों पर नियुक्त व्यक्तियों की सामान्य संज्ञा अमीर थी। अमीरों का प्रभाव सुल्तान पर होता था। सुल्तान को शासन करने के लिए अमीरों को अपने अनुकूल किये रहना आवश्यक होता था। अमीरों का प्रभाव उस समय बढ़ जाता था जब सुल्तान अयोग्य, निर्बल या अल्पवयस्क हो। वैसे बलबन और अलाउद्दीन के समय में अमीर प्रभावहीन हो गये थे। प्रायः नये राजवंश के सत्ता में आने पर पुराने अमीरों को या तो मार दिया जाता था या फिर उन्हें छोटे पद दे दिये जाते थे। मुहम्मद तुगलक के काल में हुए विद्रोहों में अमीरों का योगदान सर्वाधिक था। इसलिए उसने पुराने अमीरों को कमजोर करने की दृष्टि से मिश्रित जनजातीय आधार पर पदाधिकारियों की एक नई व्यवस्था स्थापित की। अमीरों का प्रशासन में महत्त्वपूर्ण योगदान होता था। लोदी वंश के शासन काल में अमीरों का महत्व अपने चरमोत्कर्ष पर था।
मंत्रिपरिषद्-
यद्यपि सत्ता की धुरी सुल्तान होता था फिर भी विभिन्न विभागों क कार्यों के कुशल संचालन हेतु उसे एक मंत्रिपरिषद् की आवश्यकता पड़ती थी, जिसे सल्तनत काल में ‘मजलिस-ए-खलवत’ कहा जाता था। मंत्रिपरिषद् की सलाह मानने के लिए सुल्तान बाध्य नहीं होता था। परन्तु अगर सुल्तान निर्बल या अयोग्य हो तो सारी शक्ति मंत्री अपने हाथ में केन्द्रित कर लेते थे। वह इनकी नियुक्ति एवं पदमुक्ति अपनी इच्छानुसार कर सकता था।
‘मजलिस-ए-खास’ में ‘मजलिस-ए-खलवत’ की बैठक हुआ करती थी। यहां सर सुल्तान कुछ खास लोगों को बुलाता था। ‘बार-ए-खास’ में सुल्तान सभी रबारियों, खानों, अमीरों, मालिकों और अन्य रईसों को बुलाया करता था। बार-ए-आजम’ में सुल्तान राजकीय कार्यों का अधिकांश भाग पूरा करता था। यहां र विद्वान, मुल्ला, काजी भी उपस्थित रहते थे।सल्तनतकालीन मंत्रिपरिषद् में 4 मंत्री महत्त्वपूर्ण थे। ये निम्नलिखित हैं –
1. वजीर (प्रधानमंत्री)-
मंत्रिपरिषद् में वजीर शायद सर्वप्रमुख होता था। उसके पास अन्य मंत्रियों की अपेक्षा अधिक अधिकार होता था और वह अन्य मंत्रियों के कार्यों पर नजर रखता था। वजीर राजस्व विभाग का प्रमुख होता था, उसे लगान, कर व्यवस्था, दान, सैनिक व्यय आदि की देख-भाल करनी पड़ती थी। वह प्रान्तपतियों के राजस्व लेखा का निरीक्षण करता था तथा प्रान्तपतियों से अतिरिक्त राजस्त की वसूली करता था। सुल्तान की अनुपस्थिति में उसे शासन का प्रबन्ध करना पड़ता था। वह दीवान-ए-विजारत (राजस्व विभाग), दीवान-ए-इमारत (लोक निर्माण विभाग), दीवान-ए-अमीर कोही (कृषि विभाग) विभाग के मंत्रियों का प्रमुख होता था। वजीर के सहयोगियों में प्रमुख नायब-वजीर, मुशरिफ-ए-मुमालिक, मुस्तौफी-ए-मुमालिक एवं खजीन (खजांची) होते थे। तुगलक काल “मुस्लिम भारतीय वजीरत का स्वर्ण काल” था। उत्तरगामी तुगलकों के समय में वजीर की शक्ति बहुत बढ़ गयी थी। अंतिम तुगलक शासक नासिरुद्दीन महमूद के समय में जब अशांति फैली तो एक नये कार्यालय वकील-ए-सुल्तान की स्थापना हुई। सैयदों के समय में यह शक्ति घटने लगी तथा अफगानों के अधीन वजीर का पद महत्वहीन हो गया।
नायब वजीर-
नायब वजीर, वजीर का सहयोगी होता था तथा वजीर की अनुपस्थिति में उसके कार्यों का निर्वहन इसके द्वारा ही किया जाता था।
मुशरिफ-ए-मुमालिक (महालेखाकार)-
प्रान्तों एवं अन्य विभागों से प्राप्त होने वाली आय एवं उसके व्यय का लेखा-जोखा रखने का दायित्व मुशरिफ-ए-मुमालिक का होता था। नाजिर इसका सहायक होता था।
मुस्तौफी-ए-मुमालिक (महालेखा परीक्षक)-
मुशरिफ द्वारा तैयार किये गये लेखों-जोखों की जांच के लिए मुस्तौफी-ए-मुमालिक के पद की व्यवस्था थी। कभी-कभी यह मुशरिफ की तरह आय-व्यय का निरीक्षण भी करता था।
खजीन (खजांची)-
यह कोषाध्यक्ष के रूप में कार्य करता था।
दीवान-ए-वकूफ-
जलालुद्दीन खिलजी द्वारा स्थापित इस विभाग का मुख्य कार्य व्यय के कागजात की देख-भाल करना होता था।
दीवान-ए-मुस्तखराज-
वित्त विभाग से सम्बन्धित इस विभाग की स्थापना अलाउद्दीन खिलजी ने किया था। इसका कार्य अतिरिक्त मात्रा में वसूले गये कर का हिसाब रखना होता था।
दीवान-ए-अमीर कोही-
मुहम्मद तुगलक द्वारा स्थापित इस विभाग का मुख्य कार्य मालगुजारी व्यवस्था की देखभाल करना एवं भूमि को खेती योग्य बनाना होता था।
उपर्युक्त समस्त विभाग दीवान-ए-विजारत विभाग से नियंत्रित होते थे। दीवान-ए-विजारत वजीर का कार्यालय होता था। विजारत को एक संस्था के रूप में प्रयोग करने की प्रेरणा अब्बासी खलीफाओं ने फारस से ली थी। दिल्ली-सल्तनत के प्रारम्भिक वजीरों में कुतुबुद्दीन ऐबक, ताजुद्दीन एल्दौज, नासिरुद्दीन कुबाचा आदि थे। वजीर का पद दिल्ली सल्तनत में फिरोज तुगलक के समय में अपने चरमोत्कर्ष पर था। फिरोज तुगलक के वजीर ख्वाजा हिसामुद्दीन ने विभिन्न सूबों का दौरा करने के पश्चात् समस्त खालसा भूमि का राजस्व छ: करोड़ पचासी लाख टंका निश्चित किया। लोदियों के शासन काल में यह पद महत्वहीन हो गया।
2. दीवान-ए-आरिज़-
आरिज-ए-मुमालिक सैन्य विभाग का प्रमुख अधिकारी होता था। इसका महत्त्वपूर्ण कार्य सैनिकों की भर्ती करना, सैनिकों एवं घोड़ों का हलिया रखना, रसद की व्यवस्था करना, सेना का निरीक्षण करना एवं सेना की साज-सज्जा की व्यवस्था करना होता था। आरिज-ए-मुमालिक के विभाग को ‘दीवान-ए-अर्ज’ कहा जाता था। इस विभाग की स्थापना बलबन ने की थी तथा अलाउद्दीन खिलजी के समय इसका महत्व बढ़ गया।
वकील-ए-सुल्तान-
नासिरुद्दीन महमूद (तुगलक वंश का अन्तिम शासक) द्वारा स्थापित इस मंत्री का कार्य शासन व्यवस्था एवं सैनिक व्यवस्था की देख-भाल करना होता था। यह विभाग कुछ दिन बाद अस्तित्वहीन हो गया।
3. दीवान-ए-इंशा-
यह विभाग ‘दबीर-ए-मुमालिक’ के अन्तर्गत था। शाही पत्र व्यवहार के कार्य का भार इस विभाग द्वारा होता था। यह सुल्तान की घोषणाओं एवं पत्रों का मसविदा तैयार करता था। सभी राजकीय अभिलेख इसी कार्यालय में सुरक्षित रखे जाते थे। दबीर व लेखक इसके सहयोगी होते थे। फिरोज तगलक के समय में इसका स्तर मंत्री का नहीं रह गया। मिनहाज-उस-सिराज इस विभाग को “दीवान-ए-अशरफ” कहकर संबोधित करता था। इस विभाग का कार्य अत्यन्त गोपनीय होता था।
4. दीवान-ए-रसालत-
इस विभाग के कार्यों के बारे में विवाद है। कार इतिहासकारों के अनुसार यह विभाग विदेशों से पत्र व्यवहार तथा विदेशों को भेजे जाने वाले एवं विदेश से आने वाले राजदूतों की देख-भाल करता था। कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह धर्म विभाग से सम्बन्धित था। खिलजी सुल्तान स्वयं इस विभाग का कार्य देखते थे। इसके लिए किसी अमीर की नियुक्ति खिलजी काल में नहीं हुई। उपर्युक्त मंत्रियों के अतिरिक्त भी कुछ मंत्री होते थे। ये निम्नलिखित हैं –
नायब (नायब-ए-मुमालिकत)-
इस पद की स्थापना इल्तुतमिश के पुत्र बहरामशाह के समय में उसके सरदारों द्वारा की गई। इस पद का महत्व अयोग्य सुल्तानों के समय में अधिक रहा, ऐसी स्थिति में यह पद सुल्तान के बाद माना जाता था। नायब के पद पर आसीन होने वाला प्रथम व्यक्ति ऐतगीन था। नायब के पद का सर्वाधिक प्रयोग बलबन ने किया।
सद्र-उस-सुदूर-
यह धर्म विभाग एवं दान विभाग का प्रमुख होता था। राज्य के प्रधान काजी एवं सद्र-उस-सुदूर का पद प्रायः एक ही व्यक्ति को दिया जाता था। मुलसमानों से लिए जाने वाले कर ‘जकात’ पर इस अधिकारी का अधिकार होता था। यह मस्जिदों, मकतबों एवं मदरसों के निर्माण के लिए धन मुहैया कराता था।
काजी-उल-कुजात-
सुल्तान के बाद न्याय का सर्वोच्च अधिकारी काजी-उल-कुजात होता था। प्रायः मुकदमें इसी के न्यायालय में शुरू किये जाते थे। यह अपने से नीचे के काजियों के निर्णय पर फिर से विचार करने का अधिकार रखता था। प्रायः यह पद सद्र-उस-सुदूर के पास ही रहता था। मुहम्मद बिन तुगलक यदि काजी के निर्णय से संतुष्ट नहीं होता था तो उस निर्णय को बदल देता था।
दीवान-ए-बरीद-
बरीद-ए-मुमालिक गुप्तचर विभाग का प्रधान अधिकारी होता था। इसके अधीन गुप्तचर, संदेशवाहक एवं डाक चौकियां होती थीं।
दीवान-ए-रियासत-
अलाउद्दीन खिलजी ने बाजार नियंत्रण के लिए एक विभाग स्थापित किया गया था।
दीवान-ए-नजर-
इसकी स्थापना मुहम्मद तुगलक द्वारा किया गया था। इसका कार्य उपहार वितरित करना था।
राज दरबार से सम्बन्धित पद निम्नलिखित थे
वकील-ए-दर-
यह शाही महल एवं सुल्तान की व्यक्तिगत सेवाओं की देख-भाल करता था।
बारबक-
यह दरबार की शान-शौकत एवं रस्मों की देख-रेख करता था।
अमीर–ए-हाजिब-
यह सुल्तान से मिलने वालों की जांच-पड़ताल करता था। इसके अतिरिक्त यह दरबारी शिष्टाचार के लिए भी उत्तरदायी था।
अमीर-ए-शिकार-
यह सुल्तान के शिकार की व्यवस्था किया करता था।
अमीर-ए-मजलिस-
यह शाही उत्सवों एवं दावतों का प्रबन्ध करता था।
सर-ए-जांदार-
यह सुल्तान के अंगरक्षकों का अधिकारी होता था।
अमीर-ए-आखूर-
यह अश्वशाला का अध्यक्ष होता था।
शहना-ए-पील-
हस्तिशाला का अध्यक्ष । दी
वान-ए-इस्तिहाक-
पेंशन विभाग।
दीवान-ए-खैरात-
दान विभाग फिरोजशाह तुगलक द्वारा स्थापित।
दीवान-ए-बंदगान-
दासो की देखभाल हेतु फिरोजशाह तुगलक द्वारा स्थापित।
दीवान-ए-इस्तिहाक, दीवान-ए-खैरात व दीवान-ए-बंदगान,
ये तीनों विभाग फिरोजशाह तुगलक द्वारा स्थापित किये गये।
प्रान्तीय शासन-
इक्ता व्यवस्था दिल्ली सल्तनत की एक मुख्य विशेषता थी। मख्य उद्देश्य भारत में प्रचलित सामन्ती प्रथा को नष्ट करना और साम्राज्य के दुरस्त प्रदेश को केन्द्र से जोड़ना था। इसका प्रारंभ इल्तुतमिश के शासनकाल में हुआ। दिल्ली सल्तनत अनेक प्रान्तों में बंटा था जिसे ‘इक्ता’ कहा जाता था। यहां का शासन ‘नायब वली’ व ‘मुक्ती’ द्वारा संचालित किया जाता था। उसके पास निश्चित संख्या में सेना होती थी जिसे आवश्यकता के समय सुल्तान को उपलब्ध करायी जाती थी। प्रान्त के अधिकारियों की नियुक्ति, स्थानान्तरण आदि करता था। वली या मुक्ता का पद वंशानुगत नहीं था। वित्तीय मामलों में वली की सहायता ‘ख्वाजा’ नामक अधिकारी करता था। ख्वाजा नामक अधिकारियों की नियक्ति बलबन ने इक्तादारों के भ्रष्टाचार को रोकने के लिए की थी। मुहम्मद तगलक के काल में मुक्ता से राजस्व अधिकार लेकर एक अन्य केन्द्रीय अधिकारी वली उल खराज को प्रदान कर दिये गये। इब्नबतूता के अनुसार इस समय- इक्ता में दो अधिकारी थे एक अमीर या मुक्ता तथा दूसरा बली-उल-खराज। अमीर या मुक्ता सैनिक अधिकारी होता था तथा वली-उल-खराज इक्ता की आय एकत्रित करता था। मुक्ता और बली के सम्बन्ध सुल्तान की इच्छा पर निर्भर होता है।
स्थानीय प्रशासन-
लगभग 14वीं शताब्दी में प्रशासकीय सुविधा के लिए इक्ताओं को शिकों (जिलों) में विभाजित किया गया। प्रान्त शिक में शिक, परगना तथा परगना गांवों में विभक्त थे। यहां का शासन आमील या नजीम अपने अन्य सहयोगियों के साथ करता था। एक शहर या सौ गांवों के शासन की देख-भाल ‘अमीर-ए-सादा’ नामक अधिकारी करता था। इसकी सहायता के लिए मुतसर्रिफ, कारकून, बलाहार, मुकद्दम, चौधरी, पटवारी, पियादा आदि होते थे। शासन की सर्वाधिक छोटी इकाई गांव होता था, जहां का शासन पंचायतें करती थीं। गांवों में मुकद्दम (मुखिया), पटवारी व कारकून होते थे।
प्रान्तों के अतिरिक्त कुछ केन्द्र शासित प्रदेश थे, जिनमें शिक और शहर शामिल थे। इसके प्रभावी अधिकारी शाहना (अधीक्षक) थे। यह सुल्तान द्वारा नियुक्त होते थे। इस क्षेत्र से एकत्र किया गया राजस्व सीधे केन्द्र के खजाने में जाता था। प्रत्येक उपक्षेत्र में आमिल नाम का एक पदाधिकारी होता था जो राजस्व इकट्ठा करके राजकोष में जमा करता था।
सैन्य संगठन-
तुर्की शासन व्यवस्था मुख्यतः सैन्य शक्ति पर आधारित थी। एक विशाल, संगठित, शक्तिशाली सेना की आवश्यकता सुल्तान को रहती थी। ऐसी सेना की आवश्यकता के कारणों में तुर्की अमीरों, सरदारों द्वारा किये गये विद्रोह को कुचलने, राजपूत राजाओं की विद्रोहात्मक प्रवृत्ति से निपटने, मंगोलों के आक्रमण को रोकने एवं सुल्तानों की साम्राज्य विस्तार की नीति को सफल बनाने आदि शामिल थे और इन कार्यों के लिए विशाल एवं संगठित स्थायी सेना की आवश्यकता रहती थी।
सल्तनतकालीन सैन्य व्यवस्था के अन्तर्गत इल्तुतमिश द्वारा स्थापित सेना को ‘हश्म-ए-कल्ब’ (केन्द्रीय सेना) या ‘कल्ब-ए-सुल्तानी’ कहा जाता था जबकि सामंतों व प्रान्तपतियों की सेना को ‘हश्म-ए-अतरफ’ कहा जाता था। शाही घुड़सवार सेना को सवार-ए-कल्ब कहा जाता था। सेना के लिए दीवान-ए-अर्ज की स्थापना बलबन ने किया था। सल्तनतकालीन सेना का ढांचा राष्ट्रीय नहीं था बल्कि इसमें तुर्क, अमीर, ईरानी, मंगोल, अफगान एवं भारतीय मुसलमान शामिल होते थे। सल्तनत काल में चार प्रकार के सैनिक होते थे।
प्रथम, वे सैनिक होते थे जिनको स्वयं सुल्तान नियुक्त करता था। यह सुल्तान की स्थायी सेना होती थी। इसे ‘खासखेल’ का नाम दिया गया था। अलाउद्दीन खिलजी के समय में लगभग पौने पांच लाख की स्थायी सेना थी। द्वितीय, वे सैनिक होते थे, जो प्रान्तों एवं सूबेदारों की सेना में भरती होते थे। प्रान्तीय आरिज इस सेना की देख-भाल इक्तादारों के नेतृत्व में करते थे। यह सेना वर्ष में एक बार सुल्तान के समक्ष निरीक्षण हेतु प्रस्तुत की जाती थी। सैनिक दो प्रकार के होते थे। प्रथम वजहिस जो स्थायी सैनिक थे द्वितीय गैर वजहिस जो अस्थायी थे। तृतीय, वे सैनिक होते थे जिन्हें युद्ध के समय अस्थायी रूप से भर्ती किया जाता था। इनको युद्ध काल तक ही वेतन एवं रसद प्राप्त होता था। चतुर्थ, वे सैनिक होते थे जो मुस्लिम स्वयंसेवकों के रूप में काफिरों से युद्ध करते थे, इन्हें कोई वेतन नहीं मिलता था, बल्कि लूट की सम्पत्ति में से हिस्सा मिलता था।
सल्तनतकालीन सेना मुख्यतः तीन भागों में विभक्त थी-
- घुड़सवार सेना,
- गज (हाथी) सेना, और
- पदाति (पैदल) सेना या ‘पायक’।
- संख्या की दृष्टि से पैदल सेना सबसे बड़ी होती थी, परन्तु सामरिक दृष्टिकोण से सेना का महत्त्वपूर्ण भाग घुड़सवार सेना होती थी।
- शस्त्रधारी घुड़सवारों को सवार-ए-बरगुस्तवानी कहा जाता था।
मंगोल सेना के वर्गीकरण की दशमलव प्रणाली को सल्तनतकालीन सैन्य व्यवस्था का आधार बनाया गया। सल्तनत काल में सेना का गठन, पदों का विभाजन आदि दशमलव प्रणाली पर ही आधारित थे। 10 अश्वारोहियों की एक टुकड़ी को ‘सर-ए-खेल’, 10 सर-ए-खेलों की एक टुकड़ी के ऊपर एक ‘सिपहसालार’, 10 सिपहसालारों के ऊपर एक ‘अमीर’, 10 अमीरों के ऊपर एक ‘मलिक’ और 10 मलिकों के ऊपर एक ‘खान’ होता था।
- 10 अश्वारोही = 1 सर-ए-खेल
- 10 सर-ए-खेल = 1 सिपहसालार
- 10 सिपहसालार = 1 एक अमीर
- 10 अमीर = 1 मलिक
- 10 मलिक = 1 खान
सल्तनत काल में बारूद की सहायता से गोला फेंकने की मशीन को ‘मंगलीक’ तथा ‘अर्राट’ कहा जाता था। सुल्तान के पास नावों का एक बेड़ा होता था। नावों के बेड़ों का संचालन ‘मीर बहर’ नामक अधिकारी के नेतृत्व में होता था जिसका उपयोग सैनिक सामान को ढोने में किया जाता था। ‘साहिब-ए-बरीद-ए-लश्कर विभाग’ युद्ध के समय की समस्त जानकारी राजधानी भेजता था। ‘तले अह’ एवं ‘यज्की’ नामक गुप्तचर शत्रु की सेना की गतिविधियों की सूचना एकत्र करता था। ‘चर्ख’ (शिला प्रक्षेपास्त्रों), फलाखून (गुलेल), गरगज (चलायमान मंच), सबत (सुरक्षित गाड़ी) जैसे युद्ध के समय प्रयुक्त होने वाले साधनों का उल्लेख मिलता है। खुसरो खां ने अपने शासन काल के दौरान सैनिकों को अत्यधिक धन वितरित किया।
सैनिक सुधार की दृष्टि से अलाउद्दीन का काल सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अलाउद्दीन अपने सैनिकों को नकद वेतन देने के साथ ही 6 महीने का वेतन इनाम के रूप में देता था। अलाउद्दीन ने घोड़ों को दागने की और सैनिकों का हुलिया रखने की प्रथा चलायी। सिकन्दर लोदी सैनिकों के हुलिया के स्थान पर चेहरा शब्द का प्रयोग किया। बलबन सेना को चुस्त रखने के लिए उसे शिकार पर ले जाते थे। अलाउद्दीन खिलजी के बाद मुक्ता लोग अपने सैनिकों के वेतन से कुछ कमीशन काट लेते थे। गयासुद्दीन ने इस प्रथा को समाप्त किया और वेतन रजिस्टर (वसीयत-ए-हश्म) की स्वयं जांच करने लगा।
अलाउद्दीन ने इक्ता प्रथा को समाप्त कर दिया था परन्तु फिरोजशाह तुगलक के समय में सैनिकों को नकद वेतन के स्थान पर इक्ता देने की प्रथा पुनः प्रारम्भ कर दी गई, कालान्तर में सैनिकों का पद आनुवंशिक हो गया। फिरोज तुगलक ने सेना में दासों को भरती करना शुरु किया। पिता की मृत्यु के बाद इक्ता का हकदार उसका पुत्र, पुत्र के न होने की स्थिति में दामाद, दामाद के न होने पर दास और दास भी नहीं है तो निकट का सम्बन्धी होता था। इस व्यवस्था का दुष्परिणाम फिरोज तुगलक के शासन काल में देखने को मिला। अलाउद्दीन की सैन्य व्यवस्था खुसरवशाह के समय टूटकर बिखर गयी। इसने किराए पर सैनिकों की भर्ती किया। सल्तनत काल में अच्छी नस्ल के घोड़े तुर्की, अरब एवं रूस से मंगाये जाते थे। हाथी मुख्यतः बंगाल से प्राप्त होते थे।
न्याय एवं दण्ड व्यवस्था-
सल्तनत काल में सुल्तान राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। इस समय न्याय इस्लामी कानून शरीयत, कुरान एवं हदीस पर आधारित था
मुस्लिम कानून के चार महत्त्वपूर्ण स्रोत थे-
- कुरान,
- हदीस,
- इजमा एवं
- कयास
कुरान-
मुसलमानों का पवित्र ग्रंथ एवं मुस्लिम कानून का मुख्य स्रोत।
हदीस-
पैगम्बर के कार्यों एवं कथनों का उल्लेख, कुरान द्वारा समस्या का समाधान न होने पर ‘हदीस’ का सहारा लिया जाता था।
इजमा- ‘
मुजतहिद’ व मुस्लिम विधिशास्त्रियों को मुस्लिम कानून की व्याख्या का अधिकार प्राप्त था। इसके द्वारा व्याख्यायित कानून, जो अल्लाह की इच्छा माना जाता था, को ‘इजमा’ कहा जाता था।
कयास-
तर्क के आधार पर विश्लेषित कानून को ‘कयास’ कहा जाता था। सुल्तान सद्र-उस-सुदूर, काजी-उल-कुजात आदि न्याय से संबंधित सर्वोच्च अधिकारी होता था। सुल्तान
दीवान-ए-कजा तथा दीवान-ए-मजलिस के द्वारा भी न्याय का कार्य पूरा करता था। दीवान-ए-मजलिस का अध्यक्ष अमीर-ए-दाद होता था। दीवान-ए-ममालिक सुल्तान को कानूनी परामर्श देता था। प्रान्ताध्यक्षों की सहायता काजी या ‘साहिब-ए-दीवान’ करते थे। धार्मिक मुकदमों के निर्णय के समय सुल्तान मुख्य सद्र एवं मुफ्ती की सहायता लेता था जबकि अन्य मुकदमों के निर्णय के समय काजी की सहायता लिया करता था।
कस्बों एवं गांवों की सहायता के माध्यम से स्थानीय पंच लोग झगड़ों का निपटारा करते थे। सल्तनत काल में दण्ड व्यवस्था कठोर थी। अपराध की गंभीरता को देखते हुए क्रमशः मृत्युदण्ड, अंग-भंग एवं सम्पत्ति को हड़पने का दण्ड दिया जाता था। सल्तनत काल में मुख्यतः 4 प्रकार के कानून का प्रचलन था
- सामान्य कानून- व्यापार आदि से सम्बन्धित ये कानून मुस्लिम एवं गैर मुस्लिम दोनों पर लागू होते थे। परन्तु सामान्यतः यह कानून केवल मुसलमानों पर लागू होता था।
- देश का कानून- मुस्लिम शासकों द्वारा शासित देश में प्रचलित स्थानीय नियम कानून।
- फौजदारी कानून-यह कानून मुस्लिम एवं गैर मुस्लिम दोनों पर समान रूप से लागू होता था।
गैर मुस्लिमों का धार्मिक एवं व्यक्तिगत कानून-
हिन्दुओं के सामाजिक मामलों में दिल्ली सल्तनत का अति सूक्ष्म हस्तक्षेप होता था। उनके मुकदमों की सुनवाई पंचायतों में विद्वान, पण्डित एवं ब्राह्मण किया करते थे।
मुस्लिम दण्ड विधि को ‘फिकह’ (इस्लामी धर्मशास्त्र) में बताये गये नियमों के अनुसार कठोरता से लागू किया जाता था। कुरान के नियमों के अनुसार मुस्लिम शासक का सबसे महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य है- मूर्ति पूजकों को नष्ट करना, जिहाद (धर्मयुद्ध) लड़ना एवं ‘दारुल-हर्ब’ (काफिरों के देश) को ‘दारुल इस्लाम’ (इस्लाम का देश) में बदलना।
वित्त विभाग-
सल्तनतकालीन वित्त व्यवस्था सुन्नी विधि-विषेशज्ञों की हनीफी शाखा के वित्त सिद्धांतों पर आधारित थी। दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों ने गजनवी के पूर्वाधिकारियों से यह परम्परा ग्रहण की थी। सल्तनत काल में भूमि चार भागों में विभक्त थी।
(i) मदद-ए-माश-
दान में दी गयी भूमि। इससे कोई राजस्व नहीं लिया जाता था।
(ii) मुक्तियों या इक्तादारों को दी गयी भूमि-
इसमें प्रत्येक इक्तादार अपना खर्च निकालकर अधिशेष शाही खजाना में भेज देता था।
(iii) अधीनस्थ हिन्दू राजाओं के अधीन भूमि–
यहां से एक निश्चित धनराशि केन्द्र को भेजी जाती थी।
(iv) खालसा भूमि-
इसकी समस्त आय शाही कोष में सीधे जाती थी। मुस्लिम विधिविज्ञों ने सल्तनत काल में वसूले जाने वाले करों को धार्मिक एवं धर्मनिरपेक्ष भागों में विभक्त किया। धार्मिक कर में जकात एवं धर्मनिरपेक्ष कर में जजिया, खराज एवं खुम्स आदि आते थे।
जकात-
मुसलमानों से लिया जाने वाला यह धार्मिक कर केवल सम्पन्न वर्ग के मुसलमानों से लिया जाता था। इस कर की वसूली में बल प्रयोग पूर्णतः वर्जित था। जकात कर आय का 2.5% लिया जाता था। इस कर का सम्पूर्ण भाग मसलमानों के कल्याण पर खर्च किया जाता था। एक अन्य धार्मिक कर ‘सदका’ का भी उल्लेख मिलता है, जिसे कभी-कभी जकात ही मान लिया जाता था।
उश्र- केवल मुसलमानों से लिया जाने वाला यह कर भूमि की उपज पर लिया जाता था। इस कर से वक्फ, नाबालिग एवं दास भी मुक्त नहीं थे। इस कर की वसली में बल प्रयोग किया जा सकता था। यह कर प्राकृतिक साधनों से सिंचित भूमि की उपज का 1/10 भाग तथा मनुष्यकृत साधनों से सिंचित भूमि की उपज का 1/5 भाग लिया जाता था।
जजिया-
गैर मुसलमानों से वसूले जाने वाले इस कर पर काफी विवाद है। कुछ मुसलमान इसे धार्मिक कर मानते हैं क्योंकि यह गैर मुसलमानों को उनकी सम्पत्ति, सम्मान की सुरक्षा एवं सैनिक सेवा से मुक्त रहने के लिए देना होता था। परन्तु आधुनिक इतिहासकारों ने इसे धर्मनिरपेक्ष कर मानते हुए कहा है कि यह कर गैर मुस्लिमों को इसलिए देना होता था क्योंकि वे सैनिक सेवा से मुक्त थे। इस कर से स्त्रियां, बच्चे, भिखारी एवं लंगड़े मुक्त थे। फिरोज तुगलक ने इस कर को ब्राह्मणों पर लगाया। यह कर सम्पन्न वर्ग से 40 टंका, मध्यम वर्ग से 20 टंका एवं सामान्य वर्ग से 10 टंका प्रतिवर्ष लिया जाता था।
खराज-
यह गैर मुसलमानों से लिया जाने वाला भूमि कर था। इस कर के रूप में उपज का 1/3 से 1/2 भाग तक वसूल किया जाता था। अलाउद्दीन खिलजी अनिवार्य रूप से 1/2 भाग वसूल करता था, जबकि पूरे सल्तनत काल किसानों से उनकी पैदावार का 1/3 भाग लिया जाता था।
खुम्स–
खुम्स लूट का धन होता था। इस धन का 1/5 भाग राजकोष में तथा 4/5 भाग सैनिकों में बांट दिया जाता था। परन्तु अलाउद्दीन एवं मुहम्मद तुगलक लूट के धन का 4/5 भाग राजकोष में जमा करवाते थे तथा शेष 1/5 भाग सैनिकों में वितरित कर दिया जाता था।
उपर्युक्त करों के अतिरिक्त व्यापारिक कर के रूप में मुसलमानों से 2.5% एवं गैर मुस्लिमों से 5% लिया जाता था। घोड़ों के व्यापार पर 5% कर लगता था। अलाउद्दीन खिलजी ने मकान एवं चारागाह पर तथा फिरोजशाह ने सिंचाई के साधनों पर कर लगाया जो पैदावार का 10% था।
4. लगान व्यवस्था
बंटाई-
बंटाई लगान निर्धारित करने की एक प्रणाली थी, जिसमें राज्य की ओर से प्रत्यक्ष रूप से जमीन की पैदावार से हिस्सा लिया जाता था। इसकी दो विधियां थीं-एक फसल तैयार होने के समय सरकारी अधिकारी कुल पैदावार का मूल्य निर्धारित करके करों को तय करते थे और दूसरा तैयार फसलों की माप तौल के आधार पर कर का निर्धारण किया जाता था। दूसरी विधि को बंटाई, किस्मत-ए-गल्ला, गल्ला बख्शी व हासिल कहा गया है। सल्तनत काल में निम्न तीन प्रकार की बंटाई विधि प्रचलन में थी
1. खेत बंटाई-खड़ी फसल या बुवाई के बाद ही खेत बांटकर कर का निर्धारण करना।
2. लंक बंटाई- खेत काटने के बाद खलिहान में लाये गये अनाज से भूसा निकाले बिना ही कृषक एवं सरकार के बीच बंटवारा हो जाता था।
3. रास बंटाई-खलिहान में अनाज से भूसा अलग करने के बाद सरकारी हिस्से को निर्धारित किया जाता था।
बंटाई व हासिल प्रणाली सल्तनत के प्रत्यक्ष शासन क्षेत्र में अपनाई गई थी।
मुक्ताई-
सल्तनत काल में लगान निर्धारण की मिश्रित प्रणाली को ‘मुक्ताई’ कहा जाता था। अलाउद्दीन को बाजार नियंत्रण के लिए अनाज की आवश्यकता थी, इसलिए वह लगान के रूप में अनाज लेता था।
मसाहत-
भूमि की नाप-जोख करने के उपरान्त उसके क्षेत्रफल के आधार पर उपज का लगान निश्चित किया जाता था। इस प्रणाली की शुरुआत अलाउद्दीन खिलजी ने की। गयासुद्दीन तुगलक के काल में खेतों के माप द्वारा कर निर्धारण करने की व्यवस्था को छोड़कर ‘हुक्म-ए-हासिल’ को अपनाया गया। दिल्ली सुल्तानों में सर्वप्रथम गयासुद्दीन तुगलक ने कृषि को प्रोत्साहन देने के विचार से नहरें बनवायीं तथा कर बाग लगवाये। मुहम्मद बिन तुगलक ने पुनः भूमि पैमाइश को लगान का आधार बनाया। फिरोज तुगलक द्वारा बनवायी गयी सबसे महत्त्वपूर्ण नहरों ‘राजवाही’ और ‘उलूगखाना प्रमुख थीं। सल्तनत काल में राज्य की समस्त भूमि 4 वों में विभक्त थी
1. खालसा भूमि-
इस प्रकार की भूमि पूर्णतः केन्द्र के नियंत्रण में रहती थी। इस भूमि से कर वसूल करने के लिए राजस्व विभाग के पदाधिकारी चौधरी एवं मुक़दम होते थे। प्रत्येक शिक में एक ‘आमिल’ नाम का अधिकारी होता था जो कर वसूल कर सुल्तान को भेजा करता था। अलाउद्दीन के समय में खालसा भूमि में पर्याप्त वृद्धि हुई।
2 इक्ता की भूमि-
इक्ता की भूमि की देख-भाल ‘मुफ्ती’ करते थे। इस मि से ‘मुफ्ती’ व ‘वली’ लगान वसूलते थे। लगान वसूल करने के बाद मुफ्ती अपना अलग कर शेष धन को सरकारी खजाने में जमा कर देता था। छोटी इक्ता के सख को इक्तादार तथा बड़ी इक्ताओं के प्रमुख को मुक्ता या वली कहते थे। महम्मद गलक ने इक्ता व्यवस्था में सुधार करते हुए मुक्ता या वली से अधिकार लेकर बी-उल-खराज नामक अधिकारी को दे दिया। फिरोज तुगलक के समय में सर्वाधिक उक्ताएं दान में दी गयी। भारत में इक्ता प्रणाली की शुरुआत मुहम्मद गोरी ने किया था। फिरोज तुगलक के समय इक्ता प्रथा आनुवंशिक हो गई थी। बलबन ने इक्ता धारकों की देखरेख के लिए एक अन्य कदम उठाया। उसने महत्त्वपूर्ण प्रान्तों पर अपने कों को गवर्नर के रूप में नियुक्त किया और ख्वाजा के पद का सृजन किया। इस कार बलबन ने प्रान्तों में सीमित रूप से द्वैध शासन की स्थापना की।
3. सामन्तों की भूमि-
यह भूमि अधीनस्थ हिन्दू सामन्तों व राजाओं की भूमि थी जो प्रतिवर्ष एक निश्चित मात्रा में धन सरकारी कोष में जमा करते थे।
4. इनाम व वक्फ-
यह कर मुक्त भूमि होती थी जो विशेष लोगों को दान में दी जाती थी। भूमि को प्राप्त करने वाले का भूमि पर वंशानुगत अधिकार होता था। सल्तनत काल में किसानों को उपज का 1/3 से लेकर 1/2 भाग तक राज्य को कर के रूप में देना होता था। अलाउद्दीन के समय भूमि कर को 50% कर दिया गया था। अलाउद्दीन एवं मुहम्मद तुगलक ने भूमि की पैमाइश के आधार पर लगान को निर्धारित किया। अलाउद्दीन ने दान के रूप में दी गई अधिकांश भूमि को छीन कर खालसा भूमि में परिवर्तित कर दिया। उसने लगान को दिल्ली के आस-पास के क्षेत्रों एवं दोआब से अनाज के रूप में वसूल किया। फिरोज तुगलक ने नवीन कर-सिंचाई कर लगाया।
आर्थिक विकास-
सल्तनत काल में भारत आर्थिक दृष्टि से विकसित था। विदेशों से वस्तुएं मंगाई एवं भेजी जाती थीं। व्यापार जल एवं थल दोनों मार्गों से होता था। इस समय भारत से विदेशों में भेजी जाने वाली महत्त्वपूर्ण वस्तुएं लोहा, हथियार, अनाज, सूतीवस्त्र, जड़ी-बूटी, मसाले, फल, शक्कर एवं नील आदि थीं। बाहर से आयात की जाने वाली महत्त्वपूर्ण वस्तुओं में घोड़ें (अरब, तुर्किस्तान, रूस, ईरानी), अस्त्र-शस्त्र, दास, मेवे, फल आदि शामिल थे।
सल्तनत काल के महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र के रूप में दिल्ली, थट्टा, देवल, सरसुती, अन्हिलवाड़, सतगांव, सोनार गांव, आगरा, वाराणसी, लाहौर आदि प्रसिद्ध थे। देवल सल्तनत काल में अन्तर्राष्ट्रीय बन्दरगाह के रूप में प्रसिद्ध था। सरसुती अच्छे किस्म के चावल के लिए, अन्हिलवाड़ व्यापारियों के तीर्थस्थल के रूप में, सतगांव रेशमी रजाइयों के लिए, आगरा नील उत्पादन के लिए एवं बनारस सोने, चांदी एवं जरी के काम के लिए प्रसिद्ध था। आवागमन के साधन के रूप में बैलगाड़ी, खच्चर, ऊंट, रथ तथा नौकाओं का प्रयोग किया जाता था।
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