सूफी आंदोलन (Sufi Movement)

मुसलमानों में प्रेम-भक्ति के आधार पर सूफीवाद का उदय हुआ। सूफी शब्द की उत्पत्ति कहाँ से हुई, इस विषय पर विद्वानों में विभिन्न मत है।
जो लोग सूफी संतो से शिष्यता ग्रहण करते थे, उन्हें मुरीद कहा जाता था। सूफी जिन आश्रमों में निवास करते थे उन्हें मठ या खानकाह कहा जाता था। 


सूफी सिलसिला दो वर्गों में विभाजित है

1. बार शरा:- इस्लामी सिद्धान्त के समर्थक 
2. बे शरा:- इस्लामी सिद्धान्त से बंधे नही

प्रमुख सिलसिले व परिचय

सूफी अरबी भाषा का शब्द है। जिसका अर्थ चटाईफ है। जो चटाई पर कतार में बैठकर ईश्वर उपासना करते थे उन्हें सूफी संत कहा जाता था।व्यापक अर्थ में सूफी मुस्लिम विचारको, चिंतको का वह वर्ग था, जो सादा जीवन व्यतीत कर आत्म त्याग, परोपकार और तपस्या को प्रमुखता देते थे।

भारत में कुल 4 प्रमुख सिलसिले हैं-

1. चिश्ती सम्प्रदाय-


भारत में चिश्ती सम्प्रदाय सबसे अधिक लोकप्रिय और प्रसिद्ध हुआ। भारत में चिश्ती सम्प्रदाय की स्थापना मुईनुउद्दीन चिश्ती ने की। मुईनुद्दीन चिश्ती 1192 ई. में मुहम्मद गौरी के साथ भारत आये थे। इन्होंने अजमेर को चिश्ती सम्प्रदाय का केन्द्र बनाया। अजमेर से इन्होंने दिल्ली का भी भ्रमण किया।

मुईनुउद्दीन चिश्ती हिन्दू और मुसलमान दोनों में लोकप्रिय थे और दोनों धर्मों में इनके शिष्य थे। इनकी मृत्यु के पश्चात् इनके शिष्यों ने चिश्ती सम्प्रदाय के कार्य को आगे बढ़ाया।

चिश्ती सम्प्रदाय में मुईनउद्दीन चिश्ती के अतिरिक्त जो प्रमुख सन्त हुए, वे थे- ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, ख्वाजा फरीदउद्दीन मसूद गंज-ए-शिकार, शेख निजामुद्दीन औलिया, शेख नसीर-उद्दीन चिराग-ए-दिल्ली, शेख अब्दुल हक, हजरत अशरफ जहाँगीर, शेख हुसम उद्दीन मानिक पुरी और हजरत गेसू दराज।

शेख मुईनुउद्दीन चिश्ती की अजमेर में समाधि आज भी तीर्थस्थल बना हुआ है, जहाँ प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में मुसलमान और हिन्दू एकत्र होते हैं।मुईनउद्दीन चिश्ती के प्रमुख शिष्य कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी ने चिश्ती सम्प्रदाय को और अधिक विस्तृत बनाया।

काकी सुल्तान इल्तुतमिश के समकालीन थे। इल्तुतमिश उनका बड़ा सम्मान करता था। उसने इन्हें शेख उल इस्लाम का उच्च पद देने का प्रस्ताव किया, परन्तु इन्होंने सुल्तान से किसी भी प्रकार का पद और सम्मान लेना स्वीकार नहीं किया।

काकी के उत्तराधिकारी ख्वाजा फरीद उद्दीन मसूद गंजे शिकार माया-मोह से कोसो दूर रहते थे। वह अत्यन्त सादगी और संयम का जीवन व्यतीत करते थे। 93 वर्ष की आयु में 1265 ई. में उनका देहान्त हो गया। निजामुद्दीन ओलिया बाबा फरीद के शिष्य थे। 

उनके कार्य को उनके प्रसिद्ध होनहार शिष्य निजामुद्दीन औलिया ने आगे बढ़ाया। शेख निजामुद्दीन औलिया ने अपने मत का केन्द्र दिल्ली को बनाया और बहुत अधिक प्रसिद्धि प्राप्त की। “महबूब ए इलाही” निजामुद्दीन ओलिया को कहा जाता था

शेख निजामुद्दीन औलिया ने सात सुल्तानों का शासन काल देखा था। वे किसी भी सुल्तान के दरबार में उपस्थित नहीं हुए। सुल्तान ग्यासुउद्दीन तुगलक उनकी लेाकप्रियता और उनके बढ़ते प्रभाव से ईर्ष्या करता था।

सुल्तान का पुत्र जूना खाँ (मुहम्मद तुगलक) भी उनका शिष्य बन गया था। महान् कवि और लेखक अमीर खुसरो,शेख सलीम चिश्ती, अमीर हसन देहलवी औलिया के शिष्य थे। शेख निजामुउद्दीन औलिया के शिष्यों ने उनके कार्यों को आगे बढ़ाया और चिश्ती सम्प्रदाय ने भारत में बड़ी लोकप्रियता अर्जित की।

अन्य सूफी सम्प्रदायों की अपेक्षा चिश्ती सम्प्रदाय भारत में सबसे अधिक लोकप्रिय हुआ।

इसकी लोकप्रियता के निम्नलिखित कारण थे-

  • सूफी चिश्ती सन्तों ने अपने को जनसाधारण से जोड़ा। वे गरीबों, असहायों के सहायक थे। उन्होंने सांसारिक प्रलोभनों से अपने को बहुत दूर रखा। दिल्ली के सुल्तानों द्वारा प्रदान किये जाने वाले किसी भी पद, प्रलोभन को ठुकरा दिया। इस प्रकार वे दरिद्र के सबसे सच्चे हितैषी सिद्ध हुए।
  • सूफी चिश्ती सन्त आडम्बर से कोसों दूर थे। उन्होंने स्वेच्छा से निर्धनता को अपनाया।  वे घास-फूस की झोपडियों अथवा मिट्टी के मकानों में रहते थे। उनकी आवश्यकता बहुत सीमित थी। सादा जीवन उच्च विचार उनका आदर्श था।
  • उनके इस आदर्श त्यागमय जीवन का जनता पर सीधा प्रभाव पड़ा। सूफी सन्तों का जीवन, सीधा, सादा और नियमित था। जिन बातों का वे उपदेश करते थे, उन पर स्वयं भी अमल करते थे। ऐसे सन्तों के जीवन से जनता प्रेरणा लेती थी।
  • सूफी सन्तों ने धार्मिक आधार पर कोई भेद-भाव नहीं किया। उन्होंने भाईचारे की भावना पर जोर दिया। इनकी धार्मिक उदारता से हिन्दू भी प्रभावित हुए।
  • डॉ. निजामी के शब्दों में- चिश्तियों ने भारत में अपने सिलसिलों के विकास की प्रारम्भिक अवस्थाओं में हिन्दू प्रथाओं और रिवाजों को अपना लिया था। इस कारण हिन्दू और मुसलमान दोनों ही ने चिश्ती सन्तों से प्रेरणा और दिशा निर्देशन प्राप्त किया।
  • ख्वाजा मुईनुउद्दीन चिश्ती के एक हिन्दू शिष्य रामदेव भी थे। चिश्ती सन्तों ने अपने मत का प्रचार करने के लिए जन साधारण की भाषा का प्रयोग किया। इस कारण इनके उपदेशों का आम जनता पर सीधा प्रभाव पड़ा।
  • चिश्ती सन्तों ने अपने को इस्लाम की कट्टरता से दूर रखा। इस्लाम में संगीत का निषेध है, परन्तु सूफी सन्तों ने अपनी पूजा-अर्चना एवं प्रचार में संगीत का खुलकर प्रयोग किया।
  • चिश्ती सन्त व्यवहारिक थे। गृहस्थ जीवन में भी इन्होंने जनसाधारण को साधना का मार्ग दिखाने का प्रयास किया। ईश्वर प्राप्ति के लिए घर का त्याग आवश्यक नहीं है, इस बात का प्रचार करते हुए, इन सन्तों ने पलायनवादी दृष्टिकोण छोड़ने को कहा।
  • जनता के बीच में रहते हुए, उसकी तकलीफों का अनुभव करते हुए इन्होंने उसके कल्याण के लिए अपने प्रयास जारी रखे। चिश्ती सन्त भक्ति में लीन रहते थे।
  • शेख निजामुद्दीन औलिया के अनुसार ईश्वर भक्ति दो प्रकार की है- (1) लाजमी (2) मुताद्दी (प्रचारित)।
  • प्रथम के अन्तर्गत खुदा की इबादत, उपवास, हज इत्यादि आते हैं और दूसरी के अन्तर्गत गरीब दीन दुखियों और असहाय लोगों की सहायता।दरिद्र नारायण की सेवा ही ईश्वर भक्ति का दूसरा रूप है। अपने इस दृष्टिकोण के कारण ही चिश्ती सन्त जनता में लोकप्रिय हुए।

2. सुहरावर्दी सिलसिला –

शेख शहाबुद्दीन सुहरावर्दी इसके प्रवर्तक थे। उन्होंने अपने शिष्यों को भारत जाकर उनके उपदेशों, सिद्धान्तों का प्रचार करने की प्रेरणा दी।उनके शिष्यों ने भारत में अपना प्रचार केन्द्र सिन्ध एवं मुल्तान को बनाया। शेख हमीदुद्दीन नागौरी तथा शेख बहाउद्दीन जकारिया ने इस सम्प्रदाय के विचारों का बड़ा प्रचार किया।

उन्होंने मुल्तान में अपनी खानकाह स्थापित की। जकारिया के पुत्र शर्दुद्दीन आरिफ उनके उत्तराधिकारी बने तथा उनके एक अन्य शिष्य सैयद जलालुद्दीन सुर्ख ने उच्छ में एक केन्द्र की स्थापना की।

सैयद जलालुउद्दीन के तीन पुत्र हुए- सैयद अहमद कबीर, सैयद वहाउद्दीन, सैयद मोहम्मद।

शेख शर्दउद्दीन के पुत्र शेख रुकुनुद्दीन ने सुहरावर्दी सिलसिले को काफी प्रसिद्धि अर्जित कराई। उनकी तुलना चिश्ती सन्त निजामुद्दीन औलिया से की जा सकती है।

सुहरावर्दी सम्प्रदाय के सन्तों का जीवन-

चिश्ती सन्तों के विपरीत सुहारावर्दी सन्त सम्पन्नता का जीवन बिताते थे। वे दिल्ली के सुल्तानों और अमीरों से दान प्राप्त करने में संकोच नहीं करते थे।

शेख वहाउद्दीन जकारिया ने बहुत दौलत एकत्र की। ये सन्त सरकारी पद भी प्राप्त करने में कोई शर्म महसूस नहीं करते थे। वे अपने शिष्यों से भी उपहार स्वीकार करते थे।

सुहरावर्दी सन्त लम्बे उपवासों और भूखे रहकर शरीर शुद्धि में यकीन नहीं करते थे। ये सन्त अपने समय की राजनीति में भी भाग लेते थे। इनकी खानकाह बड़ी होती थी और धन सम्पत्ति से परिपूर्ण होती थी।

इन खानकाहों को सुल्तान से धन और जागीरें प्राप्त होती थी। इससे इन सन्तों को नियमित आय प्राप्त होती थी।  इन खानकाहों में कई हॉल होते थे। इन खानकहों में कुछ भक्तजन स्थायी रूप से रहते थे और कुछ अस्थायी तौर पर आते जाते रहते थे।

यात्री भी इन खानकाहों में आकर रात के समय रह सकते थे। खानकाह धार्मिक गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु होती थी। यहाँ के रहने वालों से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे भाईचारे से रहते हुए ईश्वर प्रार्थना में लीन रहे और पवित्र जीवन बितायें।

3. कादिरी सिलसिला –

कादिरी सम्प्रदाय के प्रवर्तक बगदाद के शेख अब्दुल कादिर जिलानी (1077-1166 ई.) थे।  भारत में इस सम्प्रदाय का प्रचार मख्दूम मुहम्मद जिलानी और शाह नियामतुल्ला ने किया।  सैयद बन्दगी मुहम्मद ने 1482 ई. में सिन्ध को इस सम्प्रदाय का प्रचार केन्द्र बनाया।

वहाँ से कालान्तर में यह सम्प्रदाय कश्मीर, पंजाब, बंगाल और बिहार तक फैला। इस सम्प्रदाय के अनुयायी संगीत के विरोधी थे। ये लोग शिया मत के विरूद्ध थे। 

4. नक्शबन्दी सिलसिला –

नक्शबन्दी धर्मसंघ या सिलसिला की स्थापना उबेदुल्ला ने की थी। भारत में इस सिलसिला की स्थापना ख्वाजा बकी बिल्लाह ने की थी। भारत मे इसके व्यापक प्रचार का श्रेय बकी बिल्लाह के शिष्य अकबर के समकालीन ‘शेख अहमद सरहिन्दी’ को था। 

इस सम्प्रदाय के सन्तों ने इस्लाम की कट्टरता का विरोध किया। सन्तों ने धार्मिक आडम्बरों का विरोध किया और सादा सच्चा जीवन जीने का उपदेश दिया।

इस सम्प्रदाय का दृष्टिकोण बुद्धिवादी होने के कारण यह सम्प्रदाय जन साधारण को अपनी ओर बड़ी संख्या में आकर्षित न कर सका।

 

फिरदौसी – सुहरावर्दी सिलसिला की ही एक शाखा थी। जिसका कार्य क्षेत्र बिहार था इस सिलसिले को शेख शरीफउद्दीन याहया ने लोकप्रिय बनाया याहया ख्वाजा निजामुद्दीन के शिष्य थे

सत्तारी सिलसिला – इसकी स्थापना शेख अब्दुल्लाह सत्तारी की।इन्होंने खुदा के साथ सीधे संपर्क का दावा किया।  इसका मुख्य केंद्र बिहार था।

 

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