सिक्ख एवं अंग्रेज


  

दस सिक्ख गुरु 

पहले गुरु

गुरु नानक

1469-1538

दूसरे गुरु

गुरु अंगद

1539-1552

तीसरे गुरु

गुरु अमर दास

1552-1574

चौथे गुरु

गुरु राम दास

1574-1581

पाँचवें गुरु

गुरु अर्जुन देव

1581-1606

छठे गुरु

गुरु हरगोबिंद

1606-1645

सातवें गुरु

गुरु हर राय

1645-1661

आठवें गुरु

गुरु हरकिशन

1661-1664

नवें गुरु

गुरु तेग बहादुर

1664-1675

दसवें गुरु

गुरु गोविन्द सिंह

1675-1708




गुरु नानक

गुरू नानक का जन्म 1439 में तलबड़ी वर्तमान ननकाना साहिब(पाकिस्तान)में हुआ। इनके पिता का नाम कालू जी था। 

सिक्खों के पहले गुरु गुरुनानक थे, इन्होंने नानक पंथ चलाया। इनके शिष्य सिक्ख कहलाये। 

गुरू नानक ने गुरू का लंगर नामक निःशुल्क सहभागी भोजनालय स्थापित किये। 

गुरू नानक ने अनेक स्थानो पर संगत (धर्मशाला) और पंगत(लंगर) स्थापित किये। 

गुरू नानक की मृत्यु 1538 में करतारपुर(डेरा बाबा) नामक स्थान पर हुई। 

गुरू नानक मुगल शासक बाबर एवं हुमायूँ के समकालीन थे। 

 

गुरु अंगद

गुरूनानक ने अपने एक शिष्य लहना को अपना उत्तराधिकारी बनाया जो अंगद नाम से सिक्खों के दूसरे गुरु बने।

गुरू अंगद ने लंगर व्यवस्था को नियमित किया। 

गुरू अंगद ने गुरुमुखी लिपि का आरंभ किया। 

गुरु अमरदास

सिक्खों के तीसरे गुरू अमरदास थे। 

इन्होंने अपनी गद्दी गोइन्दवाल में स्थापित की इन्होंने नियम बनाया कि कोई भी व्यक्ति बिना लंगर में भोजन किये गुरु से नहीं मिल सकता। 

गुरू अमरदास ने अपने उपदेशों का प्रचार करने के लिए इन्होने 22 गद्दियों की स्थापना कर प्रत्येक गद्दियों में एक महन्त की नियुक्ति की। 

गुरू अमरदास ने हिन्दुओं से पृथक होने वाले कई कार्य किये। हिन्दुओं से अलग विवाह पद्धति ‘लवन’ का प्रचलन किया। 

सम्राट अकबर इनसे मिलने स्वयं गोइन्दवाल गया था। अमरदास ने अपने दामाद एवं शिष्य रामदास को अपना उत्तराधिकारी बनाया।

गुरु रामदास

गुरू रामदास सिक्खों के चौथे गुरू हुए।  

अकबर ने गुरू रामदास को 500 बीघा जमीन प्रदान की जहाँ इन्होंने एक नगर बसाया जिसे रामदासपुर कहा गया। यही बाद में अमृतसर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 

रामदास ने अपने पुत्र अर्जुन को अपना उत्तराधिकारी बनाकर गुरु का पद पैतृक कर दिया।

गुरु अर्जुन देव

गुरू अर्जुन देव सिक्खों के पाँचवें गुरू हुए। इन्हें सच्चा बादशाह भी कहा गया। 

इन्होंने रामदासपुर में अमृतसर एवं सन्तोषसर नामक दो तालाब बनवाये। अमृतसर तालाब के मध्य में 1589 ई0 में हरमन्दर साहब का निर्माण कराया इसी आधारशिला प्रसिद्ध सूफी सन्त मियांमीर ने रखी। यही स्वर्णमन्दिर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 

अर्जुनदेव ने बाद में दो 1595 ई0 में ब्यास नदी के तट पर एक अन्य नगर गोबिन्दपुर बसाया। 

इन्होंने सिक्खों के धार्मिक ग्रंथ आदिग्रंथ की रचना की। इसमें गुरू नानक की प्रेरणाप्रद प्रार्थनाएँ और गीत संकलन है। 

अर्जुनदेव द्वारा खुसरो को समर्थन देने के कारण जहाँगीर ने 1606 में इन्हें मृत्युदण्ड दे दिया।

गुरु हरगोबिन्द

सिक्खों के छठे गुरू हरगोविन्द हुए। इन्होंने सिक्खों को सैन्य संगठन का रूप दिया तथा अमृतसर नगर में अकल तख्त या ईश्वर के सिंहासन का निर्माण करवाया। 

इन्होंने सिखों को लड़ाकू जाति के रूप में परिवर्तित करने का कार्य किया। 

इन्होंने अपने शिष्यों को मांसाहार की भी आज्ञा दी। इन्हें जहाँगीर ने दो वर्ष तक ग्वालियर के किले में कैद कर रखा। इन्होंने कश्मीर में कीरतपुर नामक नगर बसाया वहीं इनकी मृत्यु भी हुई।

गुरु हरराय

सिक्खों के सातवें गुरू हरराय हुए। 

इन्हीं के समय में शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध हुआ था। सामूगढ़ की पराजय के बाद दाराशिकोह इनसे मिला था इससे नाराज होकर औरंगजेब ने हर राय को दिल्ली बुलाया ये स्वयं नही गये और अपने बेटे रामराय को भेज दिया। 

रामराय के कुछ कार्यों से औरंगजेब प्रसन्न हो गया। जबकि गुरू नाराज हो गये इस कारण अपना उत्तराधिकारी रामराय को न बनाकर अपने छः वर्षीय बेटे हरकिशन को बनाया।

गुरु हरकिशन

सिक्खों के आठवें गुरू हरकिशन हुए। 

अपने बड़े भाई रामराय से इनका विवाद हुआ। फलस्वरूप रामराय ने देहरादून में एक अलग गद्दी स्थापित कर ली इसके अनुयायी रामरायी के नाम से जाने गये। 

हरकिशन ने अपना उत्तराधिकारी तेगबहादुर को बनाया।  

हरकिशन की मृत्यु चेचक से हुई।

गुरु तेग बहादुर

सिक्खों के नवें गुरू तेगबहादुर हुए। ये हरगोविन्द के पुत्र थे इन्हीं के समय में उत्तराधिकार का झगड़ा प्रारम्भ हुआ। 

1675 ई0 में इस्लाम स्वीकार नहीं करने के कारण औंरगजेब ने इन्हें वर्तमान शीशगंज में गुरूद्वारा के निकट मरवा दिया। 

गुरु गोबिन्द सिंह


सिक्खों के दसवें गुरू गोबिन्द सिंह हुए। इनका जन्म 1666 ई. में पटना में हुआ था. गुरू गोबिन्द सिंह अपने को सच्चा पादशाह कहा.

इन्होंने सिक्खों के लिए पाँच ककार अनिर्वाय किया. अर्थात प्रत्येक सिक्ख को केश, कंघा, कृपाण, कच्छा और कड़ा रखने की अनुमति दी और सभी लोंगों को अपने नाम के अन्त मे सिंह शब्द जोड़ने के लिए कहा.

गुरू गोबिन्द सिंह का निवास-स्थान आनंदपुर साहिब था एवं कार्यस्थली पओता थी. इनके दो पुत्र फतह सिंह एवं जोरावर सिंह को सरहिन्द के मुगल फौजदार वजीर खाँ ने दीवार में चिनवा दिया.

1699 ई. में वैशाली के दिन गुरू गोबिन्द सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की. पाहुल प्रणाली की शुरुआत गुरू गोबिन्द सिंह ने किया. 

गुरू गोबिन्द सिंह ने सिक्खों के धार्मिक ग्रन्थ को वर्तमान रूप दिया और कहा कि अब गुरूवाणी सिक्ख सम्प्रदाय के गुरू का कार्य करेगी.

गुरू गोबिन्द सिंह की हत्या 1708 ई. में नादेड़ नामक स्थान पर गुल खाँ नामक पठान ने कर दी.

बन्दा बहादुर

गुरु गोविन्द सिंह की मृत्यु के बाद सिक्खों का नेतृत्व बन्दा बहादुर ने सम्भाला यह सिक्खों का पहला राजनीतिक नेता हुआ इसने प्रथम सिख राज्य की स्थापना की तथा गुरुनानक तथा गुरु गोविन्द सिंह के नाम के सिक्के चलवाये।

बन्दाबहादुर जम्मू का रहने वाला था इसके बचपन का नाम लक्ष्मण देव था बाद में इसका नाम माधव दास रखा गया, बैराग्य ग्रहण करने के कारण इसे माधव दास बैरागी कहा गया। इसकी मुलाकात गुरुगोविन्द सिंह से आन्ध्र प्रदेश के नान्देर में हुई। गुरु से प्रभावित होकर इसने अपने आप को गुरु का बन्दा कहा तब से इसका नाम बन्दा बहादुर पड़ गया गुरु ने इसका एक नया नाम गुरु बख्श सिंह रखा।

1716 0 में फरुखसियर के समय में गुरुदासपुर के पास हुये युद्ध में इसे घेर लिया गया इसे पकड़कर दिल्ली लाया गया और फरुखसियर ने इसे 1716 में फाँसी दे दी।

सरबत खालसा एवं गुरुमत्ता:- बन्दा बहादुर की मृत्यु के बाद सिखों में सरबत खालसा एवं गुरुमत्ता प्रयासों का प्रचलन हुआ। सिक्ख लोग जब इकट्ठे होते थे तब इसे सरबत खालसा एवं इकट्ठे होकर जो निर्णय लेते थे उसे गुरुमत्ता कहा गया।

दल खालसा:- 1748 में कपूर सिंह के नेतृत्व में सिक्खों के छोटे-छोटे वर्ग दल-खालसा के अन्तर्गत संगठित हुए इस संगठन ने सिक्खों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए राखी-प्रथा का प्रचलन किया। इस प्रथा के अन्तर्गत प्रत्येक गाँव से वहाँ की उपज का 1/5 भाग लिया जाता था। उस गाँव की सुरक्षा का भार भी लिया जाता था।

पानीपत के तृतीय युद्ध ये मराठे कमजोर हो गये अतः सिक्खों को फिर से उभरने का मौका मिला। इसी समय पंजाब में छोटे-छोटे सिख राज्यों की स्थापना हुई ये मिसाल कहलाते थे। इसेमें 12 मिसाले प्रमुख थी। इनमें भी पाँच अत्यन्त शक्तिशाली थी-भंगी, अहलुवालिया, सुकेरचकिया, कन्हिया तथा नक्कई इसमें भंगी मिसल सर्वाधिक शक्तिशाली थी इसका अमृतसर लाहौर और पश्चिमी पंजाब के कुछ इलाकों पर अधिकार था। सुकेर चकिया मिसल के प्रधान महासिंह थे 1792 में उनकी मृत्यु के बाद इसका नेतृत्व रणजीत सिंह ने सम्भाला। 

सिख धर्म के महत्त्वपूर्ण गुरुद्वारे:

पंज तख्त: ये सिक्खों के पाँच तख्त हैं और ये तख्त पाँच गुरुद्वारे हैं जिनका सिक्ख समुदाय के लिये बहुत महत्त्व है।

  1. अकाल तख्त साहिब का अर्थ है अनंत सिंहासन (Eternal Throne) यह अमृतसर में स्वर्ण मंदिर परिसर का एक अंग है। इसकी नींव छठे सिक्ख गुरु, गुरु हरगोबिंद जी ने रखी थी।
  2. तख्त श्री केशगढ़ साहिब आनंदपुर साहिब, पंजाब में स्थित है। यह खालसा का जन्म स्थल है जिसे वर्ष 1699 में गुरु गोबिंद सिंह जी ने स्थापित किया था।
  3. तख्त श्री दमदमा साहिब भटिंडा के पास तलवंडी साबो ग्राम में स्थित है। गुरु गोबिंद सिंह जी लगभग एक वर्ष तक यहाँ रहे और उन्होंने वर्ष 1705 में गुरु ग्रंथ साहिब के अंतिम संस्करण को संकलित किया था जिसेदमदमा साहिब बीरके नाम से भी जाना जाता है।
  4. तख्त श्री पटना साहिब बिहार की राजधानी पटना में स्थित है। गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म वर्ष 1666 में यहीं हुआ था और आनंदपुर साहिब जाने से पहले अपना बचपन उन्होंने यहीं बिताया था।
  5. तख्त श्री हज़ूर साहिब महाराष्ट्र के नांदेड़ में स्थित है।

  • ननकाना साहिब (पाकिस्तान): गुरु नानक देव जी का जन्म स्थान।
  • गुरुद्वारा दरबार साहिब (करतारपुर, पाकिस्तान): गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन के अंतिम 18 वर्ष यहाँ बिताए थे।

रणजीत सिंह (1792-1839)

रणजीत सिंह का जन्म गुजराँवाला में 2 नवम्बर, 1780 0 को सुकरचकिया मिसल के मुखिया महासिंह के यहाँ हुआ था। इनके दादा चरतसिंह ने 12 मिसलों में सुकरचकिया मिसल को प्रमुख स्थान दिला दिया। जब सिक्ख 12 मिसलों में विभाजित हो गये उस समय सुकेरचकिया मिसल के प्रमुख के रूप में रणजीत सिंह ने प्रमुखता पाई।

राजधानी- लाहौर

धार्मिक राजधानी-अमृतसर

1839 ई0 में रणजीत सिंह की मृत्यु हुई। 

रणजीत सिंह की उपलब्धियों को उनकी विजयों अंग्रेजों के साथ उनके सम्बन्ध और उनके प्रशासन के आधार पर अच्छी तरह से समझा जा सकता है।

विजयें:- अफगानिस्तान के शासक जमानशाह ने 1797 0 में रणजीत सिंह पर आक्रमण किया। रणजीत सिंह की सेना ने उसका लाहौर तक पीछा किया वापस जाते समय जमानशाह की 12 तोपें चिनाव में गिर गईं। रणजीत सिंह ने उसे निकलवाकर वापस भिजवा दिया इस सेवा के बदले में जमान शाह ने रणजीत सिंह को लाहौर पर अधिकार करने की अनुमति दे दीअतः रणजीत सिंह ने 1799 0 में लाहौर पर अधिकार कर लिया। 1805 में रणजीत सिंह ने अमृतसर को जीत लिया। 1818 में मुल्तान की विजय की। 1819 में कश्मीर की विजय की। 1834 में पेशावर की विजय की।

अमृतसर की सन्धि (1809):- यह सन्धि रणजीत सिंह और मेटकाफ के बीच हुई। इसके प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे:-

  • सतलज नदी दोनों राज्यों की सीमा मान ली गई।
  • सतलज को पार करके इसके पूरब के क्षेत्रों पर अब सिक्ख आक्रमण नहीं करेंगें।
  • लुधियाना में एक अंग्रेज सेना रख दी गई जिससे रणजीत सिंह अब सतलज के पूर्व की ओर आक्रमण कर सकें।

     

त्रिगुट या त्रिपक्षीय सन्धि (1838):- यह सन्धि रणजीत सिंह अफगानिस्तान के भगोड़े शासक शाहसुजा एवं अंग्रेज गर्वनर जनरल ऑकलैण्ड के बीच हुई। इसमें यह तय किया गया कि अंग्रेजों और सिखों की संयुक्त सेना अफगानिस्तान की गद्दी पर शाहसुजा को बैठायेगी। परन्तु इसी बीच 1839 में रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई। इसलिए यह सन्धि कार्यान्वित न हो सकी।

प्रशासन

रणजीत सिंह की सरकार को खालसा सरकार कहा गया। इन्होंने डोगरा सरदारों एवं मुसलमानों को उच्च पद दिये। इनके सरकार में प्रमुख पद निम्नलिखित थे:-

  1. मुख्यमंत्री:- यह पद सर्वाधिक महत्वपूर्ण था। इस पद पर ध्यान सिंह की नियुक्ति की गई थी।
  2. विदेश मंत्री:- इस पर फकीर अजीजुद्दीन को नियुक्त किया गया।
  3. रक्षा मंत्री:- इसमें कई लोग कार्यभार सम्भाल चुके थे। जिसमें मोहकम चन्द्र, दीवान चन्द्र मिश्र, और हरिसिंह नलवा का स्थान प्रमुख है।
  4. अर्थ मंत्री:- इस पर भगवान दास की नियुक्ति की गई।

प्रान्तीय प्रशासन

सिक्ख राज्य प्रान्तों में बंटा था जिसे सूबा कहा जाता था। सूबे के प्रमुख को नाजिम कहते थे। कुल चार सूबे थे-लाहौर, मुल्तान, कश्मीर और पेशावर।

सूबे परगने में बंटे थे यहाँ का प्रमुख कारदार होता था।

भू-राजस्व व्यवस्था:- राज्य की आय का प्रमुख स्रोत भू-राजस्व था, इससे प्राप्त आय दो करोड़ रुपये थी जबकि राज्य की पूरी आय 3 करोड़ रुपये थी। भू-राजस्व की बटाई, कनकूत आदि व्यवस्था चल रही थी।

सैन्य संगठन

रणजीत सिंह की सेना की सबसे प्रमुख विशेषता इनका पश्चिमी तर्ज पर प्रशिक्षण था। इसमें फ्रांसीसियों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इनकी सेना को दो भागों में बाँटा जाता है-फौज--खास एवं फौज--बेेकवायद-

1. फौज--खास (नियमित सेना):- यह सेना घुड़सवार पैदल एवं तोपखाने में विभक्त थी।

  • घुड़सवार:- घुड़सवारों को यूरोपीय पद्धति पर प्रशिक्षण दिया गया। इसके लिए एक फ्रांसीसी सेनापति एलाई की नियुक्ति की गई। लेकिन घुड़सवार परेड को घृणा की दृष्टि से देखते थे तथा उसे रक्स--ललुआ (नर्तकी की चाल) के नाम से पुकारते थे। तत्कालीन गर्वनर जनरल लार्ड ऑकलैंड ने कहा था ’’यह संसार की सबसे सुन्दर फौज है’’
  • पैदल सेना:- इसके प्रशिक्षण के लिए इटालियन सेनापति बन्टूरा की नियुक्ति की गई। इसने फ्रांसीसी तर्ज पर इनका प्रशिक्षण किया।
  • तोपखाना:- इसके विकास हेतु दरोगा--तोपखाना की नियुक्ति की गई। तोपखाने को प्रारम्भ में फ्रांसीसी जनरल कोर्ट एवं बाद में गार्डनर ने संगठित किया। लेहनासिंह ने इस कार्य को और आगे बढ़ाया।

प्रथम आंग्ल-सिक्ख युद्ध (1845-46):

सिक्खों सेनापति लालसिंह तेजसिंह प्रथम युद्ध में कुल चार लड़ाईयां-मुदकी, फिरोजशाह, बद्दोवाल और आलीवाल में लड़ी गईं। इसमें फिरोजशाह की लड़ाई में अंग्रेजों को हानि उठानी पड़ी। अन्तिम लड़ाई सबाराओं की लड़ाई निर्णायक सिद्ध हुई। सिक्खों की पराजय का मूल कारण लालसिंह तेजसिंह का विश्वासघात था। अन्ततः दोनों पक्षों में लाहौर की सन्धि हो गयी।

लाहौर की संन्धि (1846):

  1. दिलीप सिंह को महाराजा स्वीकार कर लिया गया और रानी झिन्दन को उनका संरक्षिका
  2. लालसिंह को वजीर स्वीकार किया गया।
  3. सतलज के पार के सभी प्रदेशों को हमेशा के लिए छोड़ दिया गया।
  4. कश्मीर अंग्रेजों को प्राप्त हो गया जिसे उन्होंने एक करोड़ रूपये के बदले में गुलाब सिंह को बेंच दिया।
  5. लाहौर में एक अंग्रेज रेजिडेन्ट हेनरी लारेन्स की नियुक्ति की गयी।

सिक्खों को कश्मीर गुलाब सिंह को बेचना पसन्द नहीं आया। इसलिए लालसिंह के नेतृत्व में सिक्खों ने विद्रोह कर दिया। विद्रोह का दमन कर दिलीपसिंह से भैरोवाल की संन्धि की गयी।

भैरोवाल की संन्धि (दिसम्बर 1846):

22 दिसंबर 1846 ई. को हुई इस संधि के तहत दलीप सिंह के संरक्षण हेतू अंग्रेजी सेना का प्रवास में मान लिया गया.

द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध (1848-49):

द्वितीय आंग्ल युद्ध के दौरान पहली लड़ाई चिलियानवाला की लड़ाई सिक्ख नेता शेर सिंह और अंग्रेज कमांडर के बीच हुई.
दूसरी लड़ाई गुजरात के चिनाव नदी के किनारे चार्ल्स नेपियर के नेतृत्व में अंग्रेजों ने 21 फरवरी 1849 ई को लड़ी.
इस युद्ध में सिक्ख पराजित हुए. लार्ड डलहौजी की 29 मार्च 1849 ई की घोषणा द्वारा पंजाब का विलय अंग्रेजी राज्य में कर लिया.
राजा दलीप सिंह को 50000 पौंड की वार्षिक पेंशन दे दी गई और पढ़ाई के लिए इंग्लैंड भेज दिया. सिक्ख राज्य का प्रसिद्ध हीरा कोहिनूर को महारानी विक्टोरिया को भेज दिया गया.

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