भक्ति आन्दोलन
छठी शताब्दी में भक्ति आन्दोलन की शुरूआत तमिल क्षेत्र से हुई जो कर्नाटक और महाराष्ट्र में फैल गई।
मध्य काल में भक्ति आंदोलन की शुरुआत सर्वप्रथम दक्षिण के अलवार तथा नयनार संतों द्वारा की गई। बारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में रामानंद द्वारा यह आंदोलन दक्षिण भारत से उत्तर भारत में लाया गया। इस आंदोलन को चैतन्य महाप्रभु, नामदेव, तुकाराम, जयदेव ने और अधिक मुखरता प्रदान की। भक्ति आंदोलन का उद्देश्य था- हिन्दू धर्म एवं समाज में सुधार तथा इस्लाम एवं हिन्दू धर्म में समन्वय स्थापित करना। अपने उद्देश्यों में यह आंदोलन काफी हद तक सफल रहा।
भक्ति कवि संतो को संत कहा जाता था और उनके दो समूह थे। प्रथम समूह वैष्णव संत थे जो महाराष्ट्र में लोकप्रिय हुए। वे भगवान विठोबा के भक्त थे। बिठोबा पंथ के संत और उनके अनुयायी वरकरी या तीर्थयात्री पंथ कहलाते थे, क्योंकि हर वर्ष पंढरपुर की तीर्थयात्रा पर जाते थे। दूसरा समूह पंजाब एवं राजस्थान के हिन्दी भाषी क्षेत्रों में सक्रिय था और इसकी निर्गुण भक्ति में आस्था थी।
भक्ति आन्दोलन को दक्षिण भारत से उत्तर भारत में रामानन्द के द्वारा लाया गया।
रामानन्द की शिक्षा से दो संप्रदायों का प्रादुर्भाव हुआ, सगुण जो पुनर्जन्म में विश्वास रखता है और निर्गुण जो भगवान के निराकर रूप को पूजता है।
सगुण सम्प्रदाय के सबसे प्रसिद्ध व्याख्याताओं में थे-तुलसीदास और नाभादास जैसे रामभक्त और निम्बार्क, वल्लभाचार्य, चैतन्य, सूरदास और मीराबाई जैसे कृष्णभक्त।
निर्गुण सम्प्रदाय के सबसे प्रसिद्ध प्रतिनिधि थे कबीर, जिन्हे भावी उत्तर भारतीय पंथो का आध्यात्मिक गुरू माना गया है।
दक्षिण में वैष्णव संतो द्वारा स्थापित चार मत
श्री संप्रदाय– इस संप्रदाय के संस्थापक रामानुजाचार्य थे, जिन्होंने विशिष्टाद्वैतवाद नामक मत की स्थापना की थी।
ब्रह्म सम्प्रदाय– इस संप्रदाय के संस्थापक माधवाचार्य थे, जिन्होंने द्वैतवाद नामक मत की स्थापना की थी।
रुद्र सम्प्रदाय– इस संप्रदाय के संस्थापक विष्णुस्वामी थे, जिन्होंने शुद्धद्वैतवाद मत की स्थापना की थी।
सनकदि संप्रदाय– इस संप्रदाय के संस्थापक निम्बार्काचार्य थे, जिन्होंने द्वैताद्वैतवाद मत की स्थापना की थी।
इनका जन्म 1017 ई0 में तमिलनाडु राज्य में चेन्नई के निकट पेरूम्बर नामक स्थान पर हुआ था। इन्होने राम को अपना आराध्य माना। वे सगुण सम्प्रदाय में विश्वास करते थे।1137 ई0 में वे ब्रह्मलीन हो गए। इन्होंने भक्ति को वैदिक परम्परा से जोडा और भक्ति पर आधारित जन आन्दोलन तथा वेद आधारित उच्च जातीय आन्दोलन के बीच सेतु का काम किया। रामानुज ने विशिष्टद्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया।
निम्बार्काचार्य
इन्होंने द्धैताद्धैतवाद का प्रतिपादन किया था। ये रामानुज के समकालीन थे। इनका सम्प्रदाय सनक या सनकादी कहलाता है। ये कृष्ण भक्ति को मोक्ष का मार्ग मानते थे।
इन्होंने द्धैताद्धैतवाद का प्रतिपादन किया था। ये रामानुज के समकालीन थे। इनका सम्प्रदाय सनक या सनकादी कहलाता है। ये कृष्ण भक्ति को मोक्ष का मार्ग मानते थे।
माधवाचार्य ने शंकरचार्य और रामानुजाचार्य दोनों के मतों का विरोध किया। माधवाचार्य का विश्वास द्वैतवाद में था और वे आत्मा व परमात्मा को पृथक.2 मानते थे। वे विष्णु के उपासक थे। उनका मत था कि ज्ञान से भक्ति प्राप्त होती है और भक्ति से मोक्ष प्राप्त होता है।
रामानंद
रामानंद का जन्म 1299 ई0 में प्रयाग में हुआ था। इन्होंने अपना सम्प्रदाय सभी जातियों के लिए खोल दिया। इनका मानना था कि-‘‘जाति पाति पूछे ना कोई, हरि को भजे सो हरि का होई।’’ रामानंद उत्तरी भारत के पहले महान भक्त संत थे। वे रामानुज के शिष्य थे। रामानंद ने दक्षिण और उत्तर भारत के भक्ति आंदोलन के बीच सेतु का काम किया अर्थात् भक्ति आंदोलन को दक्षिण भारत से उत्तर भारत में लाये। उन्होंने राम की भक्ति आरंभ की। उन्होंने अपने उपदेश संस्कृत के स्थान पर हिन्दी में दिये जिससे यह आंदोलन लोकप्रिय हुआ और हिन्दी साहित्य का निर्माण आरंभ हुआ।
इनके प्रमुख शिष्य-कबीर (जुलाहा), रैदास (हरिजन), धन्ना (जाट), सेना (नाई), पीपा (राजपूत), सधना (कसाई)।
कबीर-(1440-1510ई.)
कबीर का जन्म वाराणसी में 1440 ई0 (विवादस्पद) को एक विधवा ब्राहा्रणी के गर्भ से हुआ था।कबीर सिकंदर लोदी के समकालीन थे। वे हिन्दू मुस्लिम एकता के हिमायती थे। उन्होंने राम, रहीम, हजरत, अल्लाह आदि को एक ही ईश्वर के अनेक रूप माने। वे एकेश्वरवादी थे। कबीर के ईश्वर निराकार और सर्वगुण थे।
कबीर की शिक्षाएं 'बीजक' (शिष्य धर्मदास द्वारा संकलित)मेंं संग्रहीत है। बीजक में तीन भाग है-रमैनी, सबद और साखी। उनकी भाषा को मधुक्कड़ी कहा गया है। इसमें राजस्थानी, ब्रजभाषा एवं अवधी भाषा के शब्द पाये जाते है। उनके अनुयायियों को कबीरपंथी कहा जाता था।
निर्गुण भक्ति धारा में कबीर पहले संत थे जो संत होकर भी अंत तक गृहस्थ बने रहे। वे साम्यवादी विचारधारा के थे।
कबीर के उपदेश ‘सबद’ सिक्खों के आदिग्रंथ में संगृहित है।
जो लोग तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के तीव्र आलोचक थे और हिन्दू मुस्लिम एकता के पक्षपाती थे उनमें से कबीर और नानक का योगदान सबसे अधिक है।
कबीर की मृत्यु 1510 ई0 में मगहर में हुई।
गुरुनानक(1469-1538ई.)
इनका जन्म 1469ई. में तलवंडी (आधुनिक ननकाना, पाकिस्तान) में हुआ। इनकी माता का नाम तृप्ता देवी तथा पिता का नाम कालूराम था।
इन्होंने कीर्तनों के माध्यम से उपदेश दिये। वे काव्य रचना करते थे और रबाब के संगीत के साथ गाया करते थे।
इन्होंने रावी नदी के किनारे करतारपुर में अपना डेहरा (मठ) स्थापित किया। नानक ने सिक्ख धर्म की स्थापना की।
नानक ने अपने उपदेश छोटी-2 कविताओं में दिये जिन्हें सिक्खों के पाँचवे गुरू अर्जुनदेव ने आदिग्रन्थ में संकलित में किया।
नानक की मृत्यु 1538 ई0 में करतारपुर में हुई।
तुलसीदास (1532-1623ई.)
तुलसीदास का जन्म उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में राजापुर गाँव में 1532 ई0 में हुआ था।
इन्होंने रामचरितमानस की रचना की। तुलसीदास जी मुगल शासक अकबर एवं मेवाड के शासन राणा प्रताप के समकालीन थे।धन्ना
धन्ना जी का जन्म 1415 ई में एक जाट परिवार में हुआ था. राजपुताना से बनारस आकर ये रामानंद के शिष्य बन गए. कहा जाता है कि इन्होने भगवान की मूर्ति को हठात भोजन कराया था।
रैदासरैदास ये जाति से चमार थे. ये रामानंद के बारह शिष्यों में एक थे. इनके पिता का नाम रघु तथा माता का नाम घुरबिनिया था. ये जूता बनाकर जीविकोपार्जन करते थे. मीराबाई ने इन्हें अपना गुरु माना है. इन्होने रायदासी सम्प्रदाय की स्थापना की.दादू दयालये कबीर के अनुयायी थे. इनका जन्म 1554 ई में अहमदाबाद में हुआ था. इनका सम्बंध धुनिया जाति से था. सांभर में आकर इन्होने ब्रम्हा सम्प्रदाय की स्थापना की अकबर ने धार्मिक चर्चा के लिए इन्हें एक बार फतेहपुर सीकरी बुलाया था. इन्होने निपक्ष नामक आन्दोलन की शुरुआत की.चैतन्य स्वामीचैतन्य का जन्म 1486 ई नदिया (बंगाल) के मायापुर गाँव में हुआ था. इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र और माता का नाम शची देवी था. पाठशाला में चैतन्य को निमाई पंडित कहा जाता था. इन्होने गोसाई संघ की स्थापना की और साथ ही संकीर्तन प्रथा को जन्म दिया. इनके दार्शनिक सिधांत को अचित्य भेदाभेदवाद के नाम से जाना जाता है. सन्यासी बनने के बाद बंगाल छौड़कर पूरी उड़ीसा चले गए. जहाँ उन्होंने दो दशक तक भगवान जगन्नाथ की उपासना की।भक्ति आंदोलन का महत्त्व-
- भक्ति आंदोलन के संतों ने लोगों के सामने कर्मकांडों से मुक्त जीवन का ऐसा लक्ष्य रखा।
- भक्ति आंदोलन के कई संतों ने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया।
- भक्तिकालीन संतों ने जनसाधारण लोक भाषाओं क्षेत्रीय भाषाओं में प्रचार किया।
- भक्ति आंदोलन के प्रभाव से जाति-बंधन की जटिलता कुछ हद तक समाप्त हुई।
- ईश्वर के प्रति आत्मसमर्पण मानवतावादी दृष्टिकोण समाज में व्याप्त जातिवाद ऊंच-नीच जैसे सामाजिक बुराइयों का विरोध
धन्ना जी का जन्म 1415 ई में एक जाट परिवार में हुआ था. राजपुताना से बनारस आकर ये रामानंद के शिष्य बन गए. कहा जाता है कि इन्होने भगवान की मूर्ति को हठात भोजन कराया था।
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