चालुक्य वंश (वेंगी)




वेंगी चालुक्य वंश का प्राचीन राज्य आधुनिक आन्ध्र प्रदेश की कृष्णा तथा गोदावरी नदियों के बीच स्थित था।
वातापी के प्रसिद्ध चालुक्य शासक पुलकेशिन् द्वितीय ने इसे जीतकर अपने छोटे भाई विष्णुवर्धन को यहाँ का उपराजा बनाया था। कालान्तर में उसी ने यहाँ एक स्वतन्त्र चालुक्य वंश की स्थापना की जिसे ‘पूर्वी चालुक्यवंश’ कहा जाता है।
इस वंश के प्रमुख शासक थे: जयसिंह प्रथम, इन्द्रवर्धन, विष्णुवर्धन द्वितीय, जयसिंह द्वितीय एवं विष्णुवर्धन तृतीय।

विष्णुवर्धन:

  • वेंगी के चालुक्य वंश के संस्थापक पुलकेशिन द्वितीय का भाई विष्णुवर्धन था।
  • यह एक योग्य तथा शक्तिशाली राजा था। बहुत समय तक वह अपने भाई के प्रति निष्ठावान रहा तथा उसकी ओर से विभिन्न युद्धों में भाग लिया। जिस समय पुलकेशिन् पल्लव नरेश नरसिंहवर्मा प्रथम के साथ भीषण युद्ध में फंसा हुआ था उसी समय विष्णुवर्धन ने वेंगी में अपनी स्वाधीनता घोषित कर दी।
  • इसकी राजधानी वेंगी(आंध्र प्रदेश) में थीं।
  • इस वंश के सबसे प्रतापी राजा विजयादित्य तृतीय था, जिसका सेनापति पंडरंग था।
  • इसकी सूचना देने के लिये उसने दो ताम्रपत्र जारी किये तथा विषमसिडि की उपाधि धारण की। इन लेखों से पता चलता है कि उसके राज्य में कलिंग का कुछ भाग सम्मिलित था। दक्षिण में विष्णुकुंडिन् वंश का मयणभट्टारक तथा कोंडपडुमटि वंश का बुद्धराज उसके सामन्त के रूप में शासन करते थे।
जयसिंह प्रथम:
  • विष्णुवर्धन द्वितीय के बाद शासक हुआ। 
  • उसने पृथ्वीवल्लभ, पृथ्वीजयसिंह तथा सर्वसिद्धि जैसी उपाधियाँ धारण की। 
  • एक लेख में उसे कई सामन्त शासकों को पराजिन करने वाला बताया गया है लेकिन उसके शासन-काल की प्रमुख घटनाओं के विषय में हमें ज्ञात नहीं है। 
  • जयसिंह का उत्तराधिकारी उसका भाई इन्द्रवर्मन् हुआ। चालुक्य लेखों के अनुसार उसने केवल एक सप्ताह तक राज्य किया।

विष्णुवर्धन द्वितीय:
  • उसके बाद उसका पुत्र विष्णुवर्धन द्वितीय गद्दी पर बैठा। 
  • उसने विषमसिद्धि, मकरध्वज तथा प्रलयादित्य जैसी उपाधियाँ ग्रहण कीं।
मंगि युवराज:
  • उसका पुत्र तथा उत्तराधिकारी मंगि युवराज था जिसे विजयसिद्धि और सर्वलोकाश्रय भी कहा जाता है। उसने 25 वर्षों तक शासन किया।
जयसिंह द्वितीय:
  • मंगी युवराज का पुत्र जयसिंह जिसे सर्वलोकाश्रय तथा सर्वसिद्धि भी कहा गया है, अपने पिता की मृत्यु के बाद राजा बना तथा 13 वर्षों तक शासन किया। 
  • उसके समय में उसके छोटे भाई विजयादित्यवर्मन् ने, जो एलमंचिलि का वायसराय था, अपने को स्वतन्त्र कर लिया और महाराज की उपाधि ग्रहण की। 
  • उसके बाद एलमंचिलि पर उसके पुत्र कोकिलिवर्मन् का अधिकार हो गया।
कोकुलि विक्रमादित्य:
  • जयसिंह द्वितीय की मृत्यु के बाद वेंगी पर उसके सौतेले भाई कोकुलि विक्रमादित्य ने अधिकार कर लिया तथा उसने केवल छ: माह तक राज्य किया। उसने एलमयिलि पर पुन अधिकार कर लिया।
विष्णुवर्धन तृतीय:
  • कोकुलि विक्रमादित्य को हटाकर उसका बड़ा भाई विष्णुवर्धन तृतीय राजा बन बैठा। 
  • उसने एलमंचिलि क्षेत्र को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। 
  • उसके समय में पृथ्वीव्याघ्र नामक एक निषाद शासक ने उसके राज्य के दक्षिणी भाग पर अधिकार कर लिया। परन्तु वाद में विष्णुवर्धन ने उसे पुन जीत लिया।
विजयादित्य तृतीय:
  • विजयादित्य द्वितीय के बाद उसका पुत्र विष्णुवर्धन पंचम शासक बना जिसने अठारह या बीस माह तक शासन किया। उसके कई पुत्र थे जिनमें से विजयादित्य तृतीय वेंगी की गद्दी पर बैठा उसने 44 वर्षों (848-892 ई॰) तक राज्य किया।
  • इस वंश के सबसे प्रतापी राजा विजयादित्य तृतीय था, जिसका सेनापति पंडरंग था।
  • विजयादित्य तृतीय एक दिग्विजयी शासक था जिसने दक्षिण और उत्तर में अनेक शक्तियों को पराजित किया। उसका सबसे पहला संघर्ष नेल्लोर नगर तथा उसके आस-पास रहने वाले बोयों से हुआ। वे लड़ाकू जाति के लोग थे जो पहले चालुक्यों की अधीनता स्वीकार करते थे।
  • राजा बनने के पहले ही विजयादित्य ने उनके ऊपर आक्रमण कर उन्हें जीता तथा उनके राज्य को चालुक्य साम्राज्य में शामिल कर लिया था। किन्तु विष्णुवर्धन पंचम के मरते ही बोयों ने चालुक्यों की प्रभुसत्ता स्वीकार करने से इन्कार कर दिया।
  • विजयादित्य ने अपने नाम से एक नगर तथा पंडरंग महेश्वर नाम से एक शैव मन्दिर निर्मित करवाया था। इस विजय के फलस्वरूप दक्षिणी पूर्वी तेलगु प्रदेश जो पहले पल्लवों की सैनिक जागीर था, स्थायी रूप से चालुक्य साम्राज्य में मिला लिया गया। पंडरंग को इस क्षेत्र का राज्यपाल बना दिया गया।
  • विजयादित्य तथा राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष की सेनाओं के बीच कुन्यूम् के पास बींगावल्लि नामक ग्राम में घमासान युद्ध हुआ। इसमें विजयादित्य की सेनायें पराजित हुई तथा वह अमोघवर्ष के सम्मुख आत्मसमर्पण करने तथा उसे अपना सम्राट मानने को बाध्य हुआ। किन्तु अमोघवर्ष की मृत्यु के बाद विजयादित्य ने पुन अपने को स्वतन्त्र कर दिया तथा अपना विजय कार्य प्रारम्भ किया।
  • विजयादित्य तृतीय के सैन्य अभियानों में कोई अवरोध उत्पन्न हुआ था। उसके शासन काल में तालकाड के पश्चिमी गंग शासक पेर्मानाडि ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी।
  • विजयादित्य ने पल्लवों तथा पाएको को भी युद्ध में जीता था।
  • विजयादित्य ने पल्लवों की राजधानी काञ्चि को लूटा तथा वहाँ से भारी सोना, रत्न आदि अपने साथ ले गया।
  • विजयादित्य ने पाण्ड्य नरेश को पराजित किया तथा विजयालय को पुन चोलवंश की गद्‌दी पर आसीन करवा दिया।
  • पल्लव, बोल तथा पाण्ड्य उस समय सुदूर दक्षिण की प्रमुख शक्तियां थीं। इन्हें पराजित कर देने के कारण विजयादित्य की धाक सम्पूर्ण दक्षिण भारत में जम गयी। सुदूर दक्षिण तक अपनी विजय पताका फहराने के बाद विजयादित्य ने उत्तर की ओर सैन्य अभियान किया।
  • इसमें उसने राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय तथा उसके सहयोगी डाहल के कलचुरि शासक सकिल (शंकरगण) की मिली-जुली सेनाओं को पराजित किया था। पहले इन दोनों ने मिलकर विजयादित्य के राज्य पर आक्रमण किया। युद्ध में दोनों बुरी तरह पराजित किये गये। कृष्ण ने भाग कर डाहल के कलचुरि राज्य में शरण ली।
  • विजयादित्य के सेनापति पडरंग ने वहाँ भी उसका पीछा किया। मार्ग में राष्ट्रकूटों तथा कलचुरियों के सामन्तों से भी उसे युद्ध करना पड़ा। लेकिन सभी को उसने नतमस्तक किया। उसने वेमुलवाड के चालुक्य शासक वड्डेग, जो राष्ट्रकूटों का सामन्त था, को जीता, चक्रकूट नगर को भी जला दिया जो प्राचीन बस्तर राज्य में स्थित था, दक्षिणी कोशल के शासक के हाथियों पर अधिकार कर लिया तथा कलिंग के गंग शासक से कर प्राप्त किया।
  • इसके बाद उसकी सेना ने चेदि राज्य में प्रवेश किया। डाहल तथा दलेनाड को ध्वस्त कर दिया गया। किरणपुर (बालाघाट, म॰ प्र॰) के युद्ध में विजयादित्य तथा कृष्ण द्वितीय और शकरगण की सेनाओं ये पुनः युद्ध हुआ। इसमें चालुक्यों को सफलता मिली। आक्रमणकारियों ने डाहल राज्य के दो प्रसिद्ध नगरों-किरणपुर तथा अचलपुर-को जला दिया।
  • मजबूर होकर कृष्ण द्वितीय को संधि करनी पड़ी। विजयादित्य ने राष्ट्रकूटों का राजचिन्ह छीन लिया, बल्लभ की उपाधि धारण की तथा अपने को समस्त दक्षिणापथ एवं त्रिकीलंग प्रदेश का सार्वभौम सम्राट घोषित कर दिया। अब वह अपने साम्राज्य विस्तार से संतुष्ट था।
  • कृष्ण द्वितीय ने स्वयं उसके सन्मुख उपस्थित होकर उसका अभिवादन किया तथा उसके अस्त्र-शस्त्रों की पूजा कर उसे प्रसन्न किया। विजयादित्य ने कृष्ण को उसका राज्य वापस कर दिया तथा अपनी राजधानी लौट आया। इस प्रकार विजयादित्य तृतीय वेंगी के चालुक्य वंश का महानतम सम्राट था।
  • उसने अपने साम्राज्य का विस्तार उत्तर में महेन्द्रगिरि में लेकर दक्षिण में पुलिकत झील तक किया। वस्तुत: यह वेंगी के चालुक्य साम्राज्य का चरमोत्कर्ष था। इस कार्य मैं उसके महान् एवं सुयोग्य सेनापति पंडरग का योगदान विशेष रूप से सराहनीय है। चौवालीस वर्षों के दीर्घकालीन शासन के उपरान्त 892 ई॰ में विजयादित्य की मृत्यु हुई ।
  • विजयादित्य तृतीय की मृत्यु के बाद इस वंश की अवनत्ति शुरू हो गयी थी। राजराज चालुक्य वंश का अन्तिम शासक था। 

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