प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत

प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने के लिए इसे मुख्य रूप से तीन भागों में विभाजित किया जाता है-

  1. साहित्यिक स्रोत
  2. विदेशी यात्रा के वृतांत
  3. पुरातात्विक स्रोत

साहित्यिक स्रोत :-
प्राचीन भारतीय इतिहास पर प्रकाश डालने वाली साहित्यिक सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। अध्ययन की सुविधा के लिए साहित्यिक सामग्री को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।

  1. धार्मिक साहित्य, और 
  2. धर्म निरपेक्ष (लौकिक) साहित्य।

धार्मिक साहित्य : धार्मिक साहित्य के अन्तर्गत वे ग्रन्थ आते हैं, जो किसी धर्म विशेष से प्रभावित होते हैं। इन ग्रन्थों से तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है। धार्मिक साहित्य के अंतर्गत ब्राह्मण तथा ब्राह्मणेत्तर ग्रंथों की चर्चा की जाती है। धार्मिक साहित्य को भी तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. ब्राह्मण साहित्य, 
  2. बौद्ध साहित्य, और 
  3. जैन साहित्य।

(1).ब्राह्मण साहित्य:
प्राचीन भारतीय इतिहास पर प्रकाश डालने वाले ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनमें प्रमुख निम्नांकित हैं-

वेद: आर्यों के प्राचीनतम प्रन्थ वेद हैं। वेदों की कुल संख्या चार है ऋग्वेद, यजर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों में सबसे प्राचीन ऋग्वेद है । वेदों का भारतीय संस्कति में विशेष महत्व है। यद्यपि वेद मुख्यतः धार्मिक ग्रन्थ हैं, परन्तु इनसे आय के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

ऋग्वेद :-

  • ऋग्वेद में कुल दस मण्डल व 1028 सूक्त है । इनमें 1017 सूक्त व 11 बालखिल्य सूक्त है जो कि हस्तलिखित प्रतियों में परिशिष्ट के रूप में है । बालखिल्य सूक्त आठवें मण्डल में है।
  • ऋग्वेद का पहला व दसवां मण्डल सबसे बाद में जोड़ा गया है।
  • ऋग्वेद का पहला मण्डल अंगिरा ऋषि को व आठवाँ मण्डल कण्व ऋषि को समर्पित है।
  • ऋग्वेद के दूसरे से सातवें मण्डल को वंश मण्डल भी कहा जाता है और वंश मण्डल ही सबसे ज्यादा प्रमाणिक है। वंश मण्डल अग्नि की स्तुति से प्रारम्भ होते हैं । बाद में इंद्र तथा विश्वदेव के मंत्र गाये जाते हैं।
  • विश्वामित्र द्वारा रचित ऋग्वेद के तीसरे मण्डल में सूर्य देवता सावित्री को समर्पित प्रसिद्ध गायत्री मंत्र है। इसके 9 वें मण्डल में देवता सोम का उल्लेख है। 
  • ऋग्वेद का नवा मण्डल सोम को समर्पित है।
  • ऋग्वेद के दूसरे मण्डल में इंद्र की स्तुति, तीसरे मण्डल में विष्णु व अग्नि आदि की स्तुति तथा सातवें मण्डल में पूषन की स्तुति की गई है ।
  • आत्मा के आवागमन व निर्गुण ब्रह्म का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में आया है।
  • ऋग्वेद का पाठ होता नामक पुरोहित करते हैं।
  • ऋग्वेद के दो ब्राह्मण ग्रन्थ है- 1. ऐतरेय ब्राह्मण 2. कौषीतकी ब्राह्मण और दो ही उपनिषद ऐतरेय व कौषीतकी है।
  • ऋग्वेद में ब्रह्मा का उल्लेख नहीं है। जबकि लक्ष्मी का उल्लेख सर्वप्रथम यहीं से हुआ है।
  • ऋग्वेद के दो छन्दो में चार समुद्रों का उल्लेख है। ये है – अपर, पूर्ण, सरस्वत, शर्यणावत।

यजुर्वेद :-

  • यजुर्वेद गद्य और पद्य दोनों मे लिखा गया है। यह कर्मकाण्ड प्रधान था। इसमें यज्ञ सम्बन्धी सूक्तों का संग्रह है। इसके दो भाग है – शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद।
  • शुक्ल यजुर्वेद को वाजसनेयी संहिता भी कहा जाता है।
  • मैत्रेयी संहिता भी यजुर्वेद से सम्बन्धित है।
  • ऋग्वेद, सामवेद व यजुर्वेद को त्रयी कहा जाता है। यजु का अर्थ यज्ञ होता है।

सामवेद :-

  • यह गायी जा सकने वाली ऋचाओं का संकलन है। इसके पाठकर्ता को उद्रातृ कहते है। 
  • इस वेद में केवल 75 नए मंत्र है और शेष सभी मंत्र ऋग्वेद में से लिए गए हैं। इन मंत्रों को यज्ञ के समय पुरोहित सुर और ताल सहित गाते थे। इसी कारण इस वेद को भारतीय संगीत कला का स्त्रोत कहा जाता है।
  • सामवेद का प्रथम दृष्टा वेद व्यास के शिष्य जैमिनी को माना जाता है ।
  • सामवेद में मुख्यतः सूर्य की स्तुति के मंत्र हैं।

अथर्ववेद :-

  • यह वेद शेष तीन वेदों से अलग है।
  • इसमें 731 सूक्त प्रस्तुत किए गए हैं और यह 20 मंडलों में विभाजित है।
  • यह जादू टोनो के मंत्रों का संग्रह है।
  • अथर्ववेद में मगध व अंग जैसे पूर्वी क्षेत्रों का उल्लेख है।
  • इसमें भूतों और चुड़ैल को वश में करने की विधियां बताई गई है। 
  • इसमें बहुत सी बीमारियों से बचाव के लिए औषधियों का भी वर्णन किया गया है।
  • इसका वाचन ब्रह्मा नामक पुरोहित करता था। अतः इसे ब्रह्मवेद भी कहा जाता है।
ब्राह्मण-ब्राह्मण ग्रन्थों का मुख्य उद्देश्य संहिताओं के मंत्रों द्वारा यज्ञों की व्याख्या को समझने के लिए जिन ग्रन्थों की रचना की गई, उन्हें ‘ब्राह्मण’ कहा गया। ब्रह्म का अर्थ यज्ञ है। प्रमुख ब्राह्मण ग्रन्थ–ऐतरेय ब्राह्मण, कौषितिकी ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण, पंचविश ब्राह्मण व गोपथ ब्राह्मण है। प्रत्येक वेद के अलग अलग ब्राह्मण ग्रन्थ है। वेद स्तुति प्रधान है जबकि ब्राह्मण ग्रन्थ विधि प्रधान है। वैदिक भारत के इतिहास के साधन के रूप में ऋग्वेद के साथ शतपथ ब्राह्मण का नाम आता है।

आरण्यक-ब्राह्मण-ग्रन्थों से सम्बद्ध आरण्यकों की रचना वनों में हुई। वैदिक कर्मकाण्ड, अनुष्ठान की उत्पत्ति और उसके महत्त्व के विषय में ऋषियों का जो चिन्तन हुआ, उसे आरण्यकों में रखा गया। ब्राह्मण.ग्रन्थों के समान ये भी सरल गद्य में ही लिखे गए। विभिन्न वैदिक संहिताओ की शाखाओं के आरण्यक भी पृथक-पृथक थे। कर्मकाण्डी जनसमुदाय को ज्ञानकाण्ड की ओर लगाने का प्रयास इन आरण्यकों में हुआ है। इनका सम्बन्ध वानप्रस्थ आश्रम से था।

उपनिषद्: गुरु के समीप बैठकर प्राप्त किए गए ज्ञान के आधार पर लिखे गए ग्रन्थों को ‘उपनिषद’ जाता है। उपनिषदों से भारतीय दर्शन व बिम्बसार के पूर्व के इतिहास का विवरण प्राप्त होता है। उपनिषदों में पराविद्या (ब्रह्म विद्या) का ज्ञान है। मुक्तिकोपनिषद के अनुसार कुल 108 उपनिषद हैं। प्रमुख उपनिषद् हैं- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डुक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, कौषितिकि, वृहदारण्यक और श्वेताश्वतर सहित कुल 12 उपनिषद ही प्रामाणिक है।भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य “सत्यमेव जयते” मुण्डक उपनिषद से लिया गया है।

वेदांग: वेदों के अर्थ को सरलता से समझने तथा वैदिक कर्मकाण्डों के प्रतिपादन में सहायतार्थ वेदांग नामक साहित्य की रचना की गयी। वेदांग संख्या में छः हैं–(1)शिक्षा(2)कल्प (3)व्याकरण(4)निरुक्त (5)छन्द और (6)ज्योतिष। इन छः ही वेदांगो के नाम तथा क्रम का वर्णन सर्वप्रथम मुण्डकोपनिषद् में मिलता हैं। वेदांगों से तत्कालीन समाज एवं धर्म पर प्रकाश पड़ता है। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द, और ज्योतिष।

स्मृतियाँ: द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर पूर्व मध्य काल तक विभिन्न स्मृति ग्रन्थों की रचना की गई। स्मृतियों से तत्कालीन समाज के विभिन्न कार्यकलापों पर प्रकाश पड़ता है। प्रमुख स्मृतियाँ हैं -मनु, याज्ञवल्क्य, पाराशर, नारद, वृहस्पति, कात्यायन तथा गौतम। विष्णु स्मृति के अतिरिक्त शेष स्मृतियाँ श्लोकों में लिखी गई और इनकी भाषा लौकिक संस्कृत हैं।

सूत्र: वेदों का विधिवत् अध्ययन करने के लिए सूत्रों की रचना की गयी । सूत्र संख्या में चार हैं- श्रोत सूत्र, ग्रह सूत्र, धर्म सूत्र और शुल्व सूत्र ।

पुराण: पुराण का शाब्दिक अर्थ प्राचीन आख्यान होता है। इसमें प्राचीन शासकों की वंशावलियाँ हैं। ब्राह्मण साहित्य में पुराण विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । पुराण संख्या में अठ्ठारह है- मत्स्य, भागवत, विष्णु, वायु, ब्रह्मण्ड, ब्रह्म, पद्म, शिव, नारदीय, मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, लिंग, वराह, स्कन्द, तथा गरुण पुराण। इनमें मत्स्य पुराण सबसे प्राचीन व प्रामाणिक माना जाता है। परन्तु इनमें से पांच पुराणों का ही ऐतिहासिक महत्व है- मत्स्य, भागवत, विष्णु, वायु और ब्रह्मण्ड पुराण । डॉ. वी. ए स्मिथ के अनुसार, “इन पुराणों में मौर्य, आन्ध, शिशुनाग और गुप्त आदि राजवंशों का विस्तृत विवरण मिलता है।” विष्णु पुराण में भारत का वर्णन -''समुद्र के उत्तर में तथा हिमालय के दक्षिण में जो देश स्थित हैं वह भारत है तथा वहाँ की सन्ताने भारती हैं।''

महाकाव्य: ब्राह्मण साहित्य में वेदों के पश्चात् महाकाव्यों का विशिष्ट स्थान है। महाकाव्य दो हैं रामायण और महाभारत। रामायण की रचना महाकवि वाल्मीकि ने, और महाभारत की रचना मुनि व्यास ने की थी। इन दोनों महाकाव्यों में तत्कालीन सामाजिक राजनीतिक, धार्मिक व आर्थिक स्थिति पर व्यापक प्रकाश डाला गया है ।

महाभारत

  • इसकी रचना वेदव्यास ने की थी। इसमें अठारह पर्व हैं। पहले इसमें 8800 श्लोक थे। तब इसका नाम जयसंहिता था। 24000 श्लोक होने पर इसका नाम भारत हुआ। गुप्त काल में एक लाख श्लोक होने पर इसे महाभारत (शतसाहस्री संहिता) कहा जाने लगा।
  • महाभारत को पंचम वेद भी कहा गया है।
  • महाभारत का सर्वप्रथम उल्लेख आश्वलायन गृह सूत्र में हैं।
  • भगवद् गीता महाभारत के छठें पर्व–भीष्म पर्व का ही भाग है। भगवद् गीता को स्मृति प्रस्थान भी कहा जाता है।

(2).बौद्ध साहित्य : 
ब्राह्मण साहित्य के समान ही बौद्ध साहित्य में भी प्राचीन भारतीय इतिहास पर व्यापक प्रभाव डाला गया है। बौद्ध धर्म से सम्बन्धित अनेक ग्रन्य उपलब्ध हैं जिनमें प्रमुख निम्नांकित है:-

त्रिपिटक:त्रिपिटकों की संख्या तीन है- विनय पिटक, सुत्त पिटक एवं अभियान पिटक। महात्मा बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने के पश्चात् इनकी रचना की गई थी। ‘सुत्त पिटक’ में महात्मा बुद्ध के उपदेश संकलित हैं’ 'विनय पिटक’ में बौद्ध संघ के नियमों का उल्लेख है और ‘अभिधम्म पिटक’ में बौद्ध दर्शन का विवेचन है।

जातक कथाएँ:इनमें महात्मा बुद्ध के पूर्वजन्मों की काल्पनिक कथाएँ हैं। बौद्ध साहित्य में जातक कथाओं का प्रमुख स्थान है। जातकों की संख्या 549 है। इन कथाओं में धर्म के सिद्धान्त और नैतिकता के नियम भी समझाए गए हैं । डॉ. विण्टरनिट्ज ने जातक कथाओं के महत्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है, “जातक कथाओं का महत्त्व अमूल्य है। यह केवल इसलिए नहीं कि वे साहित्य और कला का अंश हैं, उनका महत्व तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व की भारतीय सभ्यता का दिग्दर्शन कराने में है।”

बुद्धचरितम्:बुद्धचरितम् के रचयिता महाकवि अश्वघोष थे। इस ग्रन्थ से गौतम बुद्ध के जीवन चरित्र की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।

महावंश और दीपवंश:ये दोनों ही प्रन्थ श्रीलंका के पालि महाकाव्य हैं। इन दोनों ही प्रन्थों से भारत के प्राचीन इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है। दीपवंश की रचना सम्भवत: चौथी शताब्दी और महावंश की रचना सम्भवतः पाँचवी शताब्दी में हुई थी।.

दिव्यावदान:दिव्यावदान में अनेक राजाओं की कथाएँ संकलित हैं। इस प्रन्थ में अनेक अंश चौथी शताब्दी तक जोड़े गए हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से इस प्रन्थ का विशेष महत्व है।

मिलिन्द पञ्च- इस ग्रन्थ में यूनानी राजा मिनांडर और बौद्ध भिक्षु नागसेन का दार्शनिक वार्तालाप लिपिबद्ध है। इस प्रन्थ में ईसा की पहली दो शताब्दियों के उत्तरी-पश्चिमी भारतीय जीवन की झलक देखने को मिलती है।

मंजूश्रीमूलकल्प:यह ग्रन्थ भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ में बौद्ध दृष्टिकोण से गुप्त सम्राटों का विवरण प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ से कुछ अन्य प्राचीन राजवंशों का भी संक्षिप्त वर्णन प्राप्त होता है।

ललितविस्तर और वैपुल्य सूत्र:बौद्ध साहित्य के इन दोनों ग्रन्थों से भी बौद्ध धर्म के बारे में पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। 

अंगुत्तर निकाय: इस प्रन्थ से हमें प्राचीन सोलह महाजनपदों की जानकारी मिलती है। यह प्रन्य कल्पना पर आधारित नहीं है, इस प्रन्थ में वर्णित सोलह महाजनपद उस समय वस्तुतः विद्यमान थे।

(3).जैन साहित्य :
प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण में जैन साहित्य का भी विशेष महत्व है। क्योंकि इससे हमें कुछ ऐसे भारतीय पक्षों का परिचय प्राप्त होता है, जिनकी ब्राह्मण साहित्य अथवा बौद्ध साहित्य में या तो चर्चा ही नहीं है, यदि है भी तो बहत ही अल्प है। अधिकांश जैन धर्मग्रन्थों की रचना प्राकृत भाषा में की गई है। जैन साहित्य से सम्बन्धित महत्वपूर्ण ग्रन्थ निम्नांकित हैं-

आगम:आदि जैन ग्रन्थों को ‘आगम’ के नाम से पुकारा गया। बाद में उनका संकलन ‘पूर्व’ नामक 14 ग्रन्थों में किया गया और फिर इसके पश्चात् उनका संकलन ‘अंग’ नामक 12 ग्रन्थों में हुआ, जिनके नाम हैं- आचारांग, डाण्डंग, भगवती सुत्त, समवायंग सुत्त, आचारता सुत्त, सूयगढंग सुत्त, नायाधम्मकहा, उवासगदसाओं सुत्त, दिट्ठीवाय, विवागसुयम सुत्त और अंतगडदसाओं सुत।

भद्रबाहुचरित:इस ग्रन्थ से मौर्यवंशीय शासक चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यकाल की कुछ घटनाओं पर प्रकाश पड़ता है।

परिशिष्ट पर्व:यह प्रन्थ जैन साहित्य का महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है। इस ग्रन्थ के रचयिता हेमचन्द्र थे ।इस ग्रन्थ की रचना ईसा की बारहवीं शताब्दी में हुई थी। इस ग्रन्थ से महावीर स्वामी के काल के राजाओं व अन्य जैन सम्राटों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

धर्मनिरपेक्ष साहित्य :-
धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त ऐसा साहित्य भी उपलब्ध है, जिसका किसी धर्म से न तो सीधा सम्पर्क है और न ही किसी धर्म विशेष से प्रभावित है ऐसे साहित्य को धर्मनिरपेक्ष साहित्य या धर्मोत्तर साहित्य के नाम से जाना जाता है। धर्मनिरपेक्ष साहित्य के ग्रन्थों से प्राचीन भारत के विषय में मुहत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। धर्मोत्तर साहित्य से सम्बन्धित महत्वपूर्ण ग्रन्थ निम्नांकित हैं-

  • कौटिल्य का अर्थशास्त्र
  • पाणिनी की अष्टाध्यायी
  • गार्गी संहिता
  • विशाखदत्त का मुद्राराक्षस
  • पतंजलि का महाभाष्य
  • बाणभट्ट का हर्षचरित
  • कल्हण की राजतरंगिणी
  • विल्हण का विक्रमांकदेवचरित
  • वाक्पति राज का गौडवाहो
  • चन्दवरदायी का पृथ्वीराज रासो
  • परिमल गुप्त का नवसाहसक चरित
  • कालीदास का मालविकाग्निमित्रम
  • कालीदास का अभिज्ञान शाकुन्तलम्
  • कालीदास का रघुवंश

विदेशी यात्रियों से मिलने वाली जानकारी 

क)यूनानी- रोमन लेखक
  1. टेसियस- यह ईरान का राजवैध था।
  2. हेरोडोटस- इसे इतिहास का पिता कहा जाता है। इस ने अपनी पुस्तक हिस्टोरिका में पांचवी शताब्दी ईसापूर्व के भारत-फारस के संबंध का वर्णन किया है।
  3. सिकंदर के साथ आने वाले लेखक- आनेसिक्रटस, निर्याकस, तथा आसि्टोबुलस।
  4. मेगास्थनीज- यह सेल्यूकस निकेटर का राजदूत था, जो चंद्रगुप्त मौर्य के राज दरबार में आया था। इस ने अपनी पुस्तक इंडिका में मौर्य युगीन समाज एवं संस्कृति के विषय में लिखा है।
  5. डायमेकस- यह सीरियन नरेश आंटियोकस का का राजदूत था, जो बिंदुसार के राजदरबार में आया था। इसका विवरण भी मौर्य युग से संबंधित है।
  6. डायोनिसियस- यह मिश्र नरेश टालिमी फिलाडेल्फस का राजदूत था, जो अशोक के राज दरबार में आया था।
  7. टालमी- इसमें दूसरी शताब्दी में भारत का भूगोल नामक पुस्तक लिखी।
  8. प्लिनी- किसने प्रथम शताब्दी में 'नेचुरल हिस्ट्री' नामक पुस्तक लिखी।
ख) चीनी लेखक
  1. फाहियान-  यह चीनी यात्री था जो चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार में आया था। इसने अपने यात्रा वृतांत में मध्य प्रदेश के समाज एवं संस्कृति के बारे में वर्णन किया।
  2. संयुगन- इसने अपने 3 वर्षों की यात्रा में बौद्ध धर्म की प्राप्तियां एकत्रित किया।
  3. हुएनसांग- यह हर्षवर्धन के शासनकाल में आया था। इसने अपनी पुस्तक सि-यू-की नाम से प्रसिद्ध यात्रा वृतांत में बिहार में नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन करने तथा भारत से बौद्ध ग्रंथों को एकत्र कर ले जाने आया था। इसने हर्षकालीन समाज, धर्म तथा राजनीति के बारे में वर्णन किया है। 
  4. इत्सिंग-यह 7 वीं शताब्दी के अन्त में भारत आया। इसने अपने यात्रा वृतांत में नालन्दा विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय तथा अपने भारत भ्रमण के बारे में वर्णन किया।  
ग) अरबी लेखक
  1. अलबरूनी- यह महमूद ग़ज़नवी के साथ भारत आया था। इसकी पुस्तक तहक़ीक़ ए-हिंद या किताब-उल-हिंद जिसे 'भारत की खोज' के नाम से भी जाना जाता है लिखा था।
  2. अल्बरूनी के अतिरिक्त अल-बिलादरी, सुलेमान व अल-मसूदी आदि प्रमुख यात्रियों के वृतान्तों से भी पता चलता है कि किस प्रकार मुसलमानों ने भारत पर अधिकार किया।
घ) अन्य लेखक
  1. तारानाथ- यह तिब्बती लेखक था। इसने 'कंग्युर' तथा 'तंग्युर' नामक ग्रंथ की रचना की।जिसमें भारत के इतिहास का वर्णन मिलता है। 
  2. मार्को पोलो- क्या 13 वी शताब्दी के अंत में पाण्ड्य देश की यात्रा पर आया था। जिसमें पाण्ड्य वंश का वर्णन मिलता है।  

पुरातत्विक स्रोत (Archaeological Sources )

प्राचीन भारत के अध्ययन के लिए पुरातात्विक स्त्रोतों का विशेष महत्व है। पुरातात्विक स्रोत, साहित्यिक स्रोतों से अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं, क्योंकि उनमें कवि की परिकल्पना अथवा लेखक की कल्पना शक्ति के लिए स्थान का अभाव होता है। इसके अतिरिक्त जहाँ पर साहित्यिक स्त्रोत मौन हैं, वहाँ पुरातात्विक स्त्रोत ही वस्तुस्थिति को स्पष्ट करते हैं। प्राचीन भारतीय इतिहास के विषय में जानकारी देने वाले प्रमुख पुरातात्विक स्त्रोत निम्नांकित हैं-

अभिलेख: अभिलेख की रचना भी उसी राजा के शासनकाल में की गई होती है। उस तथ्य के सत्य होने की सम्भावना अधिक होती है। अभिलेखों से तत्कालीन राजनीतिक एवं सामाजिक स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त अभिलेख, राज्य की सीमाओं और राजा के व्यक्तित्व के विषय में भी सटीक जानकारी प्रदान करते हैं। शिला पर लिखे गए अभिलेख को शिलालेख स्तम्भ पर लिखे गए अभिलेख को स्तम्भ-लेख, ताम्र पत्र पर लिखे गए अभिलेख को ताम्र पत्र-लेख, मूर्ति पर लिखे गए अभिलेख को मूर्ति-लेख कहा जाता है ।सबसे प्राचीन अभिलेख मौर्य शासक अशोक के हैं। अशोक के अधिकतर अभिलेख ‘ब्राह्मी लिपि’ में हैं। ब्राह्मी लिपि को सबसे पहले 1837 ई.में जेम्स प्रिंसेप नामक विद्वान ने पढ़ा था। प्राचीन भारत पर प्रकाश डालने वाले अभिलेखों में अशोक के अभिलेखों के अतिरिक्त समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख,  गौतमी बलश्री का नासिक अभिलेख, रुद्रदामन का गिरनार अभिलेख, चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का एहोल अभिलेख, कलिंग राज खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख,स्कन्दगुप्त का भितरी स्तम्भलेख, चन्द्रगुप्त द्वितीय का महरौली लौह स्तम्भ लेख, प्रतिहार नरेश मिहिरभोज का ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख और बंगाल के शासक विजयसेन का देवपाड़ा अभिलेख आदि महत्वपूर्ण हैं।


अभिलेख

शासन

विषय

हाथी गुम्फा अभिलेख

खारवेल

उसके शासनकाल की घटनाओ का क्रमबद्ध विवरण

जूनागढ़(गिरनार

रुद्रदामन

इसके विजयो एवं व्यक्तित्व का विवरण

नासिक अभिलेख

गौतमी बलश्री

सातवाहन कालीन घटनाओ का विवरण

प्रयाग स्तम्भलेख

समुंद्रगुप्त

उसके विजयों एवं नीतियों का वर्णन

ग्वालियर अभिलेख

भोज प्रतिहार

गुर्जर प्रतिहार शासकों के विषय में जानकारी

मन्दसौर अभिलेख

मालवा नरेश यशोवर्मन

सैनिक उपलब्धियों का वर्णन

ऐहोले अभिलेख

पुलकेशिन द्रितीय

हर्ष एवं पुलकेशिन - II के युद्ध का विवरण


अभिलेखों का अध्ययन इपीग्राफी कहलाता है। 
स्मारक और भग्नावशेष: प्राचीनकाल के स्मारकों तथा भग्नावशेषों का सावधानीपूर्वक निरीक्षण करके तत्कालीन इतिहास के विषय में पर्याप्त जानकारी प्राप्त की जा सकती है। प्रत्येक काल के स्मारक और भग्नावशेष उस काल की कला, शैली तथा धर्म के प्रतीक होते हैं। प्राचीनकाल के महलों और मन्दिरों की शैली से वास्तुकला के विकास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।  
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में हुए उत्खननों से प्राप्त भग्नावशेषों से सम्भवतः विश्व की प्राचीनतम सभ्यता ‘सिन्धु सभ्यता’ की जानकारी प्राप्त हुई। 
मुद्राएँ: मुद्राओं के अध्ययन को मुद्राशास्त्र कहते हैं। प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के पुरातात्विक स्रोतों में मुद्राओं का विशिष्ट स्थान है। अब तक सबसे प्राचीन प्रामाणिक सिक्के, जो हमें प्राप्त हुए, वे ‘आहत सिक्के’ कहलाते हैं। इन्हें विभिन्न श्रेणी के राज्य प्रशासक अपना चिन्ह अंकित कर चलाते थे। मुद्राओं पर अंकित तिथि से मुद्राओं को जारी करने वाले शासक की तिथि के विषय में जानकारी मिलती है। मुद्राओं से तत्कालीन राज्यों की आर्थिक स्थिति की पर्याप्त जानकारी मिलती है। विदेशों में भारतीय मुद्राओं के प्राप्त होने से प्राचीन भारतीय शासकों के अन्य देशों के साथ सम्बन्धों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। मुद्राओं पर उत्कीर्ण विभिन्न देवी-देवताओं के चित्रों से तत्कालीन धर्म के विषय में जानकारी मिलती है। मुद्राओं पर अंकित विभिन्न चित्रों व संगीत वाद्यों से तत्कालीन कला एवं संगीत के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
मिटटी के बर्तन: भारत के विभिन्न स्थानों के उत्खनन से मिटटी के बर्तन भी प्राप्त हुए है। इन बर्तनों का भी अत्यधिक ऐतिहासिक महत्व हैं। ये बर्तन न केवल कला की दृष्टि से उपयोगी हैं, बल्कि इनकी मिटटी की जाँच करके उनकी आयु का भी पता लगाकर इतिहास के कालक्रम को जानने में पर्याप्त सहायता मिलती है।

कलाकृतियाँ: भारत में विभिन्न स्थानों पर किए गए उत्खननों से अनेक कलाकृतियाँ; जैसे भित्ति चित्र, स्तम्भ, मूर्तियाँ, मन्दिर, खिलौने, आभूषण आदि विभिन्न वस्तुएं प्राप्त की गयीं हैं। सिन्धु घाटी में प्राप्त हुए खिलौने, मूर्तियाँ और आभूषण, मन्दिरों के भग्नावशेष और मूर्तियाँ, अशोक के स्तम्भ, विभिन्न बौद्ध प्रतिमाएँ, ताँबे अथवा काँसे की मूर्तियाँ, अजंता और वाद्य गुफाओं के भित्ति चित्र आदि सभी कलाकृतियाँ प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के महत्वपूर्ण साधन सिद्ध हुए है।

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